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'संस्कार अच्छे होंगे, तभी संस्कृति बचेगी'
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मुनि श्री सुधासागर जी
"संस्कृति की रक्षा की बात सब करते हैं, बड़े-बड़े नेता भाषण देते हैं, हर मंच से संस्कृति के हास पर चिन्ता दर्शायी जाती है परन्तु खुद के और दूसरों के संस्कार कैसे सुधारे जाएं इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। सभी तो संस्कृति सिसक रही है, लुट रही है, मिट रही है और संस्कार महावीर व राम की जगह लगातार रावण और कंस के समान होते जा रहे हैं, फिर बताओ संस्कृति कैसे बचेगी? कैसे उसकी मर्यादा की रक्षा हो सकेगी? कौन संस्कृति के गौरव को बरकरार रख पाएगा? ध्यान रखना-यदि संस्कार इसी तरह दुराचारी और व्यभिचारी जैसे पनपते रहे तो अपसंस्कृति के भंवर जाल में फंस कर एक दिन नष्ट होना पड़ेगा। संस्कृति को बचाना है तो अपने संस्कारों को पवित्र बनाओ तभी स्वयं का, समाज का और राष्ट्र का कल्याण होगा।"
भारतीय संस्कृति हमारे देश की शान और प्राण है परन्तु बिना संस्कारों के संस्कृति की रक्षा हो ही नहीं पाएंगी। संस्कारों से संस्कृति का जन्म हुआ है फिर संस्कारों को पवित्र बनाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। संस्कारों से ही धर्म बचेगा, मनुष्य में मनुष्यता आ सकेगी, हिंसा का ह्रास होगा, अराजकता बंद हो सकेगी, अशांति मिटा सकोगे, शांति को पा सकोगे और एक दिन फिर रामराज्य भी असंभव नहीं है। सारी महिमा संस्कारों की है, जैसी हमारी सोच (करनी वैसे ही परिणाम सुनिश्चित हैं। संस्कृति की नींव संस्कारों पर टिकी है, यदि उसे बचाना है तो संस्कारवान् बनना पड़ेगा और कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं यह पक्की तरह से मान लेना ।
संस्कार भगवान् के पास मांगने से नहीं मिलेंगे, न चाहने से हाँसिल होंगे। संस्कार के लिए तो समर्पित होना पड़ेगा। भगवान् के समक्ष भिखारी नहीं भक्त बनना होगा। जब आत्म समर्पण करोगे तब संस्कार मानवता में बदल जाएंगे, फिर दया, करुणा की भावना स्वतः ही फूट पड़ेगी और भक्त से फिर भगवान् भी दूर नहीं होंगे। परमात्मा से भीख मांगने की गलत आदत छोड़ो। मिथ्या दृष्टि को छोड़ कर सम्यक् दृष्टि को अपनाओ। यदि प्रभु पर विश्वास ही नहीं है, तो फिर उनसे भीख क्यों मांग रहे हो ? प्रभु तो अन्तरयामी हैं, तीनों लोक के स्वामी हैं, त्रिकाल दृष्टि हैं, घट-घट के ज्ञाता हैं, सर्वत्र हैं, अरिहन्त हैं और वे किसी को कष्ट देते ही नहीं है। वे तो परम दयालु और करुणा निधान हैं। याद रखना-भगवान् कभी कुछ नहीं देते ही नहीं, अपने संस्कारों से उत्पन्न कर्म ही अच्छे-बुरे के कारण हैं। फिर भगवान् के समक्ष भिखारी नहीं भक्त बनें। कभी भगवान् साक्षात सामने आ भी जायें, तब भी मत मांगना । हात मत फैलाओ, दोनों हाथ जोड़कर झुकना सीखों। भक्त कभी कुछ मांगता नहीं, मांगने की जरूरत भी नहीं है बल्कि उसे तो अपने आप अपनी पुण्याई व सुसंस्कारों के बल पर मिलेगा, यह तय है। तभी तो कहा है- "बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख... "
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सुसंस्कारी व्यक्ति ही यह भावना करेगा कि भगवान् उसके हृदय में विराजित हो जाएं। वह यह नहीं सोचेगा कि मैं भगवान् के हृदय में बैठ जाऊं। हनुमान जी ने भगवान् का सीना नहीं फाड़ा था बल्कि अपना सीना फाड़कर संसार को यह ज्ञान दिया था कि प्रभु अपने स्वयं के हृदय में हों। उन्हें अपनी आँखों में बसा लू, परन्तु आज तो संस्कारों के अभाव में भक्त मॉर्डन, सुविधा भोगी और सौदागर हो गया। तभी तो आज भगवान् के समक्ष भिखारियों की लाईन लगी है, भगवान् का ही सीना फाड़ने को लोग तैयार हैं, एक नारियल चढ़ाकर, सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाकर एक मुट्ठी चावल अर्पित कर १०० बोरी का मुनाफा और एक दम १० लाख रुपए की लाटरी खोलने का सौदा कर रहे हैं। ऐसे अज्ञानी लोगों को मूर्ख और धूर्त कहा कि भगवान् एक का नहीं होता परन्तु भक्त का भगवान् एक ही होता है। यही तो महिमा है भगवान् की। अतः भगवान् के साथ मत हों, भगवान् को अपने साथ कर लो, फिर कल्याण हो जाएगा, भव-भव तिर जाएगा। बुरे कर्मों का स्वयं जिम्मेदार समझना और सुख और वैभव मिले तो इसे भगवान् का आशीर्वाद मानना, यही है शुभ संस्कार और इसी भावना से बच सकेगी भारतीय संस्कृति ।
'अमृत वाणी' से साभार
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