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________________ शासनदेव पूजा-रहस्य श्री रतनलाल जी कटारिया श्री कटारिया जी की विशेषता यह है कि वे ग्रंथों को अमान्य ठहराने की अपेक्षा उनका आर्ष वचनानुसार अर्थ करके दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। शासनदेवों की पूज्यता और अपूज्यता को लेकर विवाद समाज में नया नहीं है और अब तक परिपाटी यह रही है कि जिन ग्रंथों में शासनदेवों की पूजा का विधान है, उन्हें भट्टारकप्रणीत कह कर अमान्य घोषित कर दिया जाता है। श्री कटारिया उन ग्रंथों की मान्यता को सुरक्षित रखते हुए उनके शास्त्रसम्मत अर्थ निकालने में सिद्धहस्त हैं। यह विशेषता उन्हें अपने स्व. पिताजी से विरासत में मिली है। श्री कटारिया के तर्को पर विद्वान निष्पक्ष रूप से विचार कर सकें, इसी पवित्र भावना के साथ हम उनकी यह रचना यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। वैसे यह तो समन्तभद्र आदि के ग्रंथों से हस्तामलकवत् स्पष्ट ही है कि सच्चे देव, शास्त्र और गुरु के अतिरिक्त अन्यों की पूजा सम्यग्दृष्टि के लिए निषिद्ध है। इति पंचमहा पुरुषाः प्रणुता जिनधर्मवचन चैत्यानि॥ जैनधर्म में रागद्वेष और इन्द्रिय विषय कषायों को चैत्यालयाश्च विमलां, दिशंतु बोधिं बुधजनेष्टाम्॥१०॥ जीतने वाले आराध्य हैं, रागीद्वेषी इन्द्रिय विषय कषायों के . - चैत्यभक्ति (पूज्यपाद) गुलाम देवगति के देवों को आराध्य-पूज्य बताना जैन संस्कृति अरहंत सिद्ध साहूतितयं जिणधम्म वयण पडिमाइ। के सर्वथा विरुद्ध है। जिणणिलया इदिराए, णवदेवा दिन्तु मे बोहिं॥ देवगति के देवों को महान और पज्य जैनेतर संप्रदायों -भावत्रिभगा में माना गया है,उनके शास्त्र इन देवों की विविध स्तुतियों से अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साध भरे पड़े हैं जबकि जैनधर्म ने इन देवी-देवताओं के जाल से के पंच परमेष्ठी (सचेतन) तथा जिनधर्म, जिनवाणी, जिन मनुष्य को ऊपर उठा कर उसकी महान् आत्मिक मानवी प्रतिमा. जिनालय ये चार (अचेतन) इस प्रकार नवदेव माने शक्ति का यानि नर से नारायण तथा जन से जिन बनने की गये हैं। क्षमता का उसे भान कराया है। यही जैनधर्म की अन्य धर्मों से खास विशेषता है। इसी खुबी का लोप करना इसे विकृत ये सब वीतराग-स्वरूप होने से पूज्य और आराध्य करना एक तरह से जैनधर्म को ही समाप्त करना है। हैं। इनके सिवा न तो और कोई वीतराग-स्वरूप हैं और न पूज्य आराध्य हैं। संसार के समग्र प्राणियों में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी इन नवदेवों में कोई भी देवगति (व्यंतर-ज्योतिष्क है। जैनधर्म में जहाँ देवों में ४ गुणस्थान तक ही माने हैं वहाँ भवनवासी-कल्पवासी) के देव नहीं हैं, जबकि शासनदेव व मनुष्यों में १४ गुणस्थान तक माने हैं। शास्त्रों में अनेक कथायें व्यंतर जाति के यक्षदेव हैं जो वीतरागस्वरूप नहीं है, रागी आती हैं, जिनमें देवताओं द्वारा मनुष्यों की रक्षा और उनकी द्वेषी हैं, अतः अपूज्य हैं। पूजा का वर्णन पाया जाता है। इस तरह जैनाचार्यों ने देवों को मनुष्यों का सेवक पूजक दूयोतित किया है, मनुष्यों को देवों पूज्यता सयम स आता ह आर दवगात म सयम का का सेवक-पजक नहीं। सर्वथा अभाव है। कुन्दकुन्दाचार्य ने दर्शनपाहुड गाथा २६ में __ तीर्थंकरों के तपकल्याणक के प्रसंग में शास्त्रों में कहा है: लिखा है कि भगवान की पालकी को उठाने में जब देवों असंजदं न वंदे गंथविहीणो वि सो ण वंदिज्जो । अर्थात् और मनष्यों में विवाद उत्पन्न हो गया तो उसका निर्णय इसी असंयमी चाहे वह नग्न-दिगंबर ही क्यों न हो वंदनीय नहीं बात पर हआ कि- “जो भगवान के साथ दीक्षित होने की है? तब भला रागी द्वेषी और परिग्रही शासन देव-यक्ष कैसे संयम धारण करने की क्षमता रखते हों एवं भगवान् की पूज्य हो सकते हैं? अर्थात् कदापि नहीं। जाति के हों यानि मानव जाति के (भूमि-गोचरी) हों वे ही 10 दिसम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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