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________________ परिग्रह याचना से बच जाता था। मतलब ये हुआ श्रावक जिससे भावना बनी रहे, वैसे श्वेताम्बर परम्परा में रजोहरण यदि श्रावक धर्म पालन करता है तो मुनिव्रत सहज ही पल होता है, जो भेड़ के बाल अर्थात् ऊन से निर्मित होता है, वह जाता है। अब पुनः प्रश्न उठता है आखिर यह मंचीय कार्यक्रम भी परिमार्जन के काम आता है। एक और बात पढ़ने सुनने क्यों? इस मंचीय कार्यक्रम की क्या आवश्यकता है? उत्तर में आती है, आचार्य कुन्दकुन्द देव के बारे में कि उन्होंने यह है कि यह मृदु गुणधारी पिच्छिका बोली के माध्यम से गिद्ध के पंखों की पिच्छिका का भी प्रयोग किया, इसलिये वे नहीं, धन-पैसों से नहीं दी ली जाती है यह तो संयम का गृद्धपिच्छाचार्य भी कहलाये। उपकरण है, बदले में संयम ग्रहण करें उसी श्रावक को दी अब सावधान हो जायें, वह समय आ गया है, जाती है। जब बहुत से लोग एक दूसरे को पिच्छिका लेते देते पिच्छिका परिवर्तन का, जहाँ पर भी मुनिराज, आर्यिका, देखेंगे तो दूसरों के भी व्रत मार्ग में चलने के भाव होंगे। धर्म ऐलक, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका के प्रभावना अंग के पालक क्षेत्र का विस्तार होगा। यह कहावत चरितार्थ होगी-'खरबूजे इसका सहयोगी श्रावक अपने कर्तव्य का पालन करे, क्योंकि को देखकर खरबूजा रंग बदलता है' कर्तव्य ही धर्म की कसौटी है। अब यह धीरे-धीरे प्रभावना अंग के रूप में परिवर्तित संघस्थ-आचार्य श्री विद्यासागर जी हो गया है, मतलब ये सब कार्यक्रम प्रभावना के लिये हैं। दुनिया ने तांबे के बर्तन वाले पानी का लोहा माना इससे डायरिया और डिसेंट्री से होने वाली मोतों को रोका जा सकता है भारत में आदिकाल से ही तांबे के बर्तनों का उपयोग होता रहा है। ऐसी मान्यता रही है कि तांबे के बर्तन में रखा पानी स्वास्थ्य वर्धक होता है और इससे किसी भी तरह का संक्रमण होने की सम्भावना पूरी तरह से समाप्त हो जाती है। अब ब्रिटेन के एक माइक्रोबॉयोलॉजिस्ट ने भी कई परीक्षण करने के बाद इस बात की पुष्टि की है। विश्व प्रसिद्ध विज्ञान नेचर में छपे एक अनुसन्धान के अनुसार ब्रिटेन की नार्थ अम्ब्रिया यूनिवर्सिटी के माइक्रोबॉयोलॉजिस्ट रॉब रीड ने अपनी भारत यात्रा के दौरान तांबे के बर्तन में रखे पानी की काफी तारीफें सुनी और यह जाना कि यह पानी बीमारियों से बचाता है। उन्होंने इस बात का परीक्षण करने का फैसला किया। यूनिवर्सिटी लौट कर रॉब ने अपने दो अन्य साथियों पूजा टंडन और संजय छिब्बर के साथ मिलकर कई प्रयोग किये। इस दल ने मिट्टी और तांबे के बर्तनों में ई-कोली रोगाणुओं वाला पानी भरा। इस पानी का ६, २४ और ४८ घण्टे बाद परीक्षण किया गया।६ घण्टे बाद तांबे के बर्तन में रखे पानी में इन रोगाणुओं की संख्या में काफी कमी देखी गई। २४ घण्टे बाद पानी में नाम मात्र के रोगाणु पाये गये, वहीं ४८ घण्टे बाद इसमें रोगाणुओं का नामोनिशान भी नहीं था। रॉब ने सोसायटी फॉर जनरल माइक्रोबॉयोलॉजी की एडिनबरा में हुई बैठक को बताया कि रोगाणुओं का सफाया करने में तांबे (कॉपर) की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है। असल में तांबे से बने बर्तनों में तांबे के साथ ही जस्ता (जिंक) भी होता है और जब इसमें पानी भरा जाता है, तो इसके कुछ कण पानी में मिल जाते हैं। ये कण ही पानी को सही मायने में साफ़ करने का काम करते हैं। रॉब ने बताया कि अगर विकासशील और अविकसित देशों में रहने वाले लोग प्लॉस्टिक के बर्तनों की जगह तांबे के बर्तनों का उपयोग करते हैं, तो वहाँ हर साल डायरिया और डिसेंट्री से होने वाली, करीब २० लाख बच्चों की मौत को रोका जा सकता है। दैनिक भास्कर, भोपाल दि.१३-४-०५ से साभार दिसम्बर 2005 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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