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पिच्छिका परिवर्तन क्यों?
मुनि श्री चन्द्रसागर जी
यह संयम की रक्षा का साधन अहिंसा उपकरण के कठोरता आ जाती है ऐसा इस कारण से होता है क्योंकि रूप में जाना जाता है। जो जीव हमारी आँखों से देखने में न लगातार उपयोग होता है जिससे पिच्छिका के बाल झड़ जाते आये, यदि आते भी हों तो उनका परिमार्जन कर ही साधु हैं और डन्ठल रह जाते हैं। जिससे कठोर गुण वाली हो उपकरण उठाता रखता है या बैठना, उठना करता है। यह जाती है और परिमार्जन के योग्य नहीं रह जाती है इसलिये पिच्छिका साधु पद की शोभा का चिह्न है। जैसे-विद्यार्थी पीछी परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है। अब प्रश्न उठता बिना यूनिफार्म के जाना पहचाना नहीं जाता, वैसे ही साधु है गृहस्थों के हाथ में पिच्छिका क्यों? इसलिये कि वह संयम बिना पिच्छिका के जाना पहचाना नहीं जाता। एक बार के मार्ग में आगे बढ़ सके और पिच्छिका के निमित्त से कछ आचार्य श्री के पास कुछ अंग्रेज आये उन्होंने पिच्छिका ली नियम संयम व्रत ब्रह्मचर्य आदि को ग्रहण करे, जिससे और संकेत करते हुए पूछा ये क्यों? तो आचार्य श्री का उत्तर उसका जीवन संतुलित बन सके। था यह हमारी यूनीफार्म है, इसके बिना साधु 7 कदम से पुरानी पिच्छिका को अपने घर रखता है, ऐसे स्थान अधिक नहीं चल सकता और यदि इसके बिना चलने का पर जहाँ से ज्यादा आना जाना होता हो, जिसे देखकर भावों (मौका) अवसर आ पड़े तो वह साधु प्रायश्चित का भागीदार में मृदुता बनी रहे और दैनिक चर्या में आचरण में कठोरता होता है।
भी रही वह पुरानी पिच्छिका प्रत्येक पल याद दिलाती है कि यह मयूर पंख वाली पिच्छिका 5 गणों से युक्त होती जीवन में नवीन पिच्छिका कब धारण करुं भावों में दरिद्रता है, अब आप जानना चाहेंगे कि 5 गुण कौन-कौन से हैं। नहीं होनी चाहिये, भले शरीर की क्षमता न हो भावों से तो जैसे-लघु, मुलायम, हल्की (वजन में), धूल नहीं लगती संयमी जीवन होना ही चाहिये, वैसे भी श्रावकाचार में शिक्षाव्रत
और पसीने को न तो ग्रहण करती है और न ही जल्दी खराब के अंतर्गत रखा गया है, इससे मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक होती है। यहाँ तक देखा है कि यदि इसके बालों को आँखों बनने की शिक्षा मिलती है। में डाल दें तो आंसु नहीं आते। इससे स्पष्ट होता है, इसकी अब एक और प्रश्न उठता है साधु अपने हाथ से मृदुता के बारे में अब कोई संदेह शेष नहीं रह जाता, मोर पिच्छिका क्यों बनाते हैं? इसका उत्तर यह है कि वे तो जब नाचता है तो पंखों को छोड़ देता है क्योंकि नृत्य क्रिया आरम्भ परिग्रह के त्यागी हैं क्योंकि श्रावक प्रमादी हो गया है में वे पंख उसे भारी प्रतीत होते हैं इसलिये वर्ष में 2 बार और आगम में प्रमाद को गाली कहा है। मतलब वह अपने अपनी स्वेच्छा से छोड देता है और ऐसा भी सुनने में आता कर्तव्य को भूल गया है अर्थात् धर्म को भूल गया क्यों है जब वह मोर रोता है तब आंस को पीकर मयूरी को गर्भ कर्तव्य ही धर्म है। धारण हो जाता है। इतनी दर-दूर रहने वाले ये सदाचारी
एक प्रसंग याद आ रहा है। चर्चा के दौरान पंडित ब्रह्मचारी जैसे प्राणी हैं शायद इसी कारण मुनिराज मयूर पंख जगमोहन लाल जी शास्त्री कटनी वालों ने कहा था कि पहले की पिच्छिका रखते हैं। अब प्रश्न खड़ा होता है कि पिच्छिका बंदेलखण्ड में एक प्रथा थी कि श्रावक गण अपने हाथों से झाडू नहीं है क्योंकि झाडू को पंचसूना में रखा है जो पंचसूना मयूर पंखों की पिच्छिका बनाकर अपने घर में रख लेते थे, गहस्थ के काम आते हैं, साधु के नहीं। झाडू हिंसा का जब चातर्मास के बाद साध विहार करते हए गांव में आते थे साधन हैं तो ठीक इसके विपरीत पिच्छिका अहिंसा का तब घर में आहार के बाद मनिराज से विनय पर्वक निवेदन साधन है। साधु की शोभा मूदु उपकरण से है श्रावक की करते थे' हे महाराज मैं आपको यह संयम उपकरण पिच्छिका शोभा झाडू से है, जिसके घर झाडू नहीं वह कैसा श्रावक। देना चाहता हूँ क्योंकि आपका यह संयम उपकरण जीर्णअब प्रश्न फिर उठता है आखिर ये पीछी परिवर्तन क्यों? शीर्ण हो रहा है. पराना हो रहा है. आप नया ग्रहण करें और परिवर्तन इसलिये क्योंकि इसमें जब सड़न गलन आ जाती पुराना मुझे दे दें 'ये था श्रावक का कर्तव्य और यही धर्मध्यान है, जीर्ण शीर्ण हो जाती है तो पंखों में मृदुता के स्थान पर का सच्चा सस्ता और अच्छा साधन था, इससे साधु आरम्भ
8 दिसम्बर 2005 जिनभाषित
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