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पालकी उठा सकते हैं "। इसमें देव परास्त हो गये और प्रभृति ग्रंथों में गोमुख चक्रेश्वरी आदि देवताओं को यक्ष नाम
मनुष्यों ने ही सर्वप्रथम पालकी को उठाया।
ही संसूचित किया है कहीं भी शासन देव नहीं लिखा है। बाद के ग्रंथों में शासन के अधिष्ठाता रूप में नहीं किन्तु शासन की रक्षा करने वाले के अर्थ में ये शासनदेव कल्पित किये गए हैं। जैसा कि यशस्तिलक चम्पू में सोमदेव सूरि ने लिखा है- "ता: शासनाधिरक्षार्थं कल्पिताः परमागमे " ।
इससे देवों की अपेक्षा मनुष्यों की महत्ता गुरुता सर्वश्रेष्ठता का परिचय प्राप्त होता है।
और
जैनधर्म में तो वीतराग जिनदेव को छोड़कर अन्य सभी देवताओं की उपासना को देवमूढ़ता (मिथ्यात्व) बताया है जैसा कि स्वामी समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है
वरोपलिप्सयाशावान्, रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत, देवतामूढमुच्यते ॥ २३ ॥
अर्थात् किसी कामना - प्रयोजन से भी रागद्वेषी देवों रहकर यक्षशासन हो जायेगा । की उपासना करना देवमूढता है ।
इसका कारण यह है कि रागीद्वेषियों की उपासना रागद्वेष (संसार-दुःख) को ही बढ़ाती है जबकि वीतराग की उपासना वीतरागता (मोक्ष- सुख) को प्राप्त कराती है। यही जैन भक्ति का उद्देश्य और सार है ।
प्रश्न : जिस तरह नव देवों में 'जिन वचन' गुणदेव हैं और उसके अधिष्ठाता देव श्रुतदेव या सरस्वती देवी पूज्य
रूप में माने गये हैं उसी तरह 'जिनशासन' के अधिष्ठाता देव
"इन तथा कथित शासन देवों को मान लिया जाये और इन्हें पूज्य बताया जाये तो क्या बाधा है?
उत्तर : ऐसा किसी तरह संभव नहीं, क्योंकि ये शासन देव व्यंतर जाति के यक्ष हैं और इनकी उत्कृष्ट आयु करीब एक पल्योपम मात्र है अतः ये गुण देव नहीं होने से अधिष्ठाता देव ही संभव नहीं है जबकि श्रुतदेव देवगति के देव नहीं हैं अतः गुणदेव होने से अधिष्ठाता देव हैं और श्रुत की तरह ही इनकी आयु की अनादि अनंत है। (श्री जैन शासनमनिंदूयमनाद्यनन्तम्, भव्यौध ताप शमनाय सुधा प्रवाहम्॥) शासन देवों में २४ यक्ष और २४ यक्षियाँ है जिनके सब के अलग-अलग गोमुख चक्रेश्वरी आदि व्यक्ति रूप से संज्ञा वाची नाम न होकर गुणानुरूप नाम हैं। शासनदेव यक्षदेव होने से सचेतन है। जिस तरह एक म्यान में दो तलवार नहीं समा सकती उसी तरह यक्ष देवत्व में जिन शासनत्व नहीं समा सकता। सचेतन अशुद्ध पदार्थ में स्थापना नहीं हो सकती अतः कोई व्यंतर यक्ष कभी अधिष्ठातादेव (जिनशासन) नहीं बन सकता।
तिलोयपण्णत्ति (दिग.) तथा निर्वाणकलिका (श्वे. )
इससे स्पष्ट है कि- ये स्वयं मूर्तमान "जिनशासन " नहीं हैं ये तो शासन के रक्षक कल्पित देव हैं। अगर इन्हें ही वास्तविक जिनशासन मान लिया जाये तो फिर जैनधर्म के अधिनायक जिनेन्द्र देव नहीं रहकर ये देवगति के यक्षदेव अधिनायक हो जायेंगे। फिर तो वह शासन भी जिनशासन न
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बाद में ग्रंथकारों ने इन यक्षों को 'शासनदेव' नाम अधिष्ठाता रूप से नहीं प्रत्युत जिनशासन के रक्षक रूप से दिया है। किन्तु यह भी व्यर्थ है क्योंकि पूर्वाचार्यों ने जैनजगत ( जिनशासन) के रक्षक दिग्पाल (लोकपाल) पहले से ही बता रखे हैं तब फिर ये और नये रक्षक क्यों ईजाद किये गये ? क्या उन दिग्पाल - लोकपालों की रक्षकता में कोई कमी आ गई थी? इनके सिवा तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ४ के सूत्र ५ में बताया है कि- "त्रायस्त्रिश लोकपाल वर्ज्याः त्रास्त्रिश (पुरोहित) और लोकपाल (रक्षक) भेद नहीं होते। व्यंतर ज्योतिष्काः" अर्थात् व्यंतर और ज्योतिष्क देवों में
अतः ये शासन के रक्षक रूप में भी शासनदेव ( व्यंतरयक्ष) शास्त्र विरुद्ध सिद्ध होते हैं ।
प्रश्न : 'जैनं जयति शासनम्' इस श्लोक में जो जैन शासन की जय की गई है वह 'जिनशासन' नवदेवों में कौन सा देव है ? क्या वह कोई दसवां देव है ?
उत्तर : नवदेवों से भिन्न कोई दसवां पूज्य देव नहीं है। शासन का एक अर्थ शास्त्र (जिनवचन) भी होता है । देखो हेमचन्द्र कृत 'अनेकार्थ संग्रह' कांड ३-शासनं नृपदत्तोर्व्यां शास्त्राज्ञा - लेख शास्तिषु ॥ ४५३ ।।
शासन और शास्त्र शब्द एक ही शास् धातु से बने हैं 1 अतः यहाँ जिनवचन ही जिनशासन है। जिनवचन के अधिष्ठाता देव श्रुतदेव ही वस्तुतः जिनशासन देवता है, ये मूर्ति रूप में हों चाहे शिलालेख या हस्तलिखित मुद्रित शास्त्र पुस्तक रूप में हों, पूज्य मान्य हैं इनके सिवा अन्य सब शासनदेव मिथ्या और अपूज्य हैं।
प्रश्न : शास्त्रों में जो श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि,
-दिसम्बर 2005 जिनभाषित 11
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