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________________ समाचार डॉ. शिखरचंद जी की कुण्डलपुर में सल्लेखना हटा। विश्ववंदनीय संतशिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी के पूर्वअध्यक्ष दशम प्रतिमाधारी, गुरुचरणों में मुक्ति की अभिलाषा रखनेवाले, बड़ेबाबा के परमभक्त ब्रह्मचारी डॉ. शिखरचंद जैन हटा (75 वर्ष) ने सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर में धुलेंडी की शाम 6:44 बजे इस नश्वर देह को त्याग कर समाधि प्राप्त की। होली (धुलेडी) पर्व पर भारी संख्या में देश के कोने-कोने से श्रद्धालु भक्तगण कुण्डलपुर में एकत्र हुये थे। दोपहर में आचार्यश्री का मंगल प्रवचन हुआ, संध्याकाल आचार्यभक्ति में सम्मिलित होने डॉ. शिखरचंद पैदल चलकर ज्ञानसाधना केन्द्र में आचार्य श्री के समक्ष पहुँचे। आचार्यभक्ति के बाद वहाँ लेटे शिखरचंद जी को आचार्यश्री ने संबोधित किया। हाथ उठाकर बडेबाबा की जय बोलने को कहा तो उन्होंने हाथ उठाकर संकेत दिया। इस बीच आचार्यश्री का पूरा संघ (लगभग 51 मुनिगण) महामंत्र णमोकार का उद्घोष करते रहे और देखते-देखते शिखरचंदजी इस असार संसार से विदा हो गये । डॉ. जैन अनेक सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं से जुड़े रहे। कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी के महामंत्री एवं अध्यक्ष भी रहे। दो चातुर्मास आचार्यश्री ने इनके कार्यकाल में किये। आचार्यश्री के समक्ष दीक्षा हेतु प्रयासरत् रहे । सल्लेखना हेतु भी अनेक बार निवेदन किया । अन्ततः उनकी अभिलाषा बड़े बाबा के चरणों में पूर्ण हुई । धर्मात्मा निकट हों, चर्चा धरम सुनावें । वो सावधान रक्खें, गालिफ न होने पावे ॥ दिन रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊँ । देहान्त के समय में गुरु को न भूल जाऊँ ॥ अन्त्येष्टि समाधिस्थल छैघरिया के पास कुण्डलपुर में सम्पन्न हुई। ऐसी सल्लेखना के लिए बड़े-बड़े आचार्य भी तरसते हैं डॉ. शिखरचंद जी के योगदान को आचार्य श्री ने सराहा कुण्डलपुर के पहले चातुर्मास सन् 1976 में डॉ. शिखरचंद हटावालों ने विद्याभवन की बात रखी थी, वे उस समय कुंडलपुर कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने जिस कर्मठता Jain Education International से क्षेत्र का विकास किया और योगदान दिया है, उसको देखकर लगता है कि यदि ऐसे लोग हो जाएँगे तो भारतवर्ष में कई बड़ेबाबा के मंदिर बन सकते हैं। इन जैसा समर्पित व्यक्ति अत्यंत दुर्लभ है, वे माई के लाल थे, कुण्डलपुर के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने 5-5 वर्ष के दो कार्यकाल पूर्ण किए। उसी समय कुण्डलपुर के बड़े बाबा के मंदिर के जीर्णोद्धार की योजना बनी, जो आज भी जारी है । इसी समय उन्होंने व्रती बनने का संकल्प लिया। समय रहते उन्होंने साधना प्रारंभ की। पहली प्रतिमा से दसवीं प्रतिमा तक की साधना निर्दोष रूप से की। उक्त आशय के उद्गार संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने डॉ. शिखरचंद जैन हटा की समाधिमरण (सल्लेखना) के बाद आयोजित श्रद्धांजली सभा में व्यक्त किए। आचार्यश्री ने डॉ. शिखरचंद के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करते हुए कहा कि उनकी भावना हमेशा सल्लेखना की रहती थी। कुछ चीजें भावना से होती हैं, न धन लगता है, न तन लगता है । ऐसी सल्लेखना के लिए बड़े-बड़े आचार्य भी तरसते हैं। वे बड़ेबाबा के लिए समर्पित थे और उन्होंने बड़े बाबा के ही चरणों में नश्वर शरीर को समर्पित किया। उनकी सल्लेखना में 50 मुनियों की उपस्थिति अपने आप हो गई। अभी वे तिलवारा दयोदय आए थे और कहा कि मैं वृद्ध हूँ, इसलिए आप दीक्षा नहीं दे रहे हैं, यह मेरे लिए अभिशाप है। मैं निर्विकल्प रहना चाहता था, इसलिए उन्हें दीक्षा नहीं दी । शरीर से वृद्ध हो गए थे। शरीर भी जीर्ण-शीर्ण था। उन्हें निर्देश दिए गये कि आप सल्लेखना की तैयारी करो। उनकी भावना थी- मैं बड़े बाबा के पास रहना चाहता हूँ और छोटेबाबा आपको भी छोड़ना नहीं चाहता हूँ, हमेशा बड़े-बड़े पत्र लिखकर भेजा करते थे । पत्र पढ़कर लगता था कि उनकी उत्कृष्ट भावना सल्लेखना की है। योग बना, हमारा यहाँ आना हुआ। कल शाम को उनके शरीर ने काम करना छोड़ दिया । परसों वे मेरे पास आए और कहा कि आज बहुत बढ़िया लग रहा है, आज्ञा हो तो बड़ेबाबा के दर्शन के लिए चला जाऊँ । विशुद्धि अच्छी थी, 24 घंटे नहीं हुए, शरीर और डाउन हुआ। कल शाम को भक्ति के बाद समस्त मुनिसंघ की उपस्थिति में 15 मिनट नहीं लगे। उन्हें संबोधित किया। उनसे कहा- बड़े बाबा को नमोस्तु करो। हाथ उठाया और ओंठ हिलाये । 15 मिनिट के भीतर खेल समाप्त गया। मई 2005 जिनभाषित 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524296
Book TitleJinabhashita 2005 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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