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अपेक्षा से भी सिद्धों में भेद स्वीकार किया है अर्थात् कुछ ऐसे । चिंतवन कर रहा हो, जैसे-मैं शुद्ध बुद्ध सच्चिदानंद हूँ, मेरे भी मुनिराज होते हैं, जिनके पाँचों चारित्र पाये जाते हैं अर्थात् | अंदर राग-द्वेष वगैरह कुछ भी नहीं है, तो उस समय भी उस परिहारविशुद्धिचारित्र के साथ छेदोपस्थापनाचारित्र का होना जीव के आत्मानुभव नहीं कहा जा सकता। यह आदमी तो असंभव नहीं है।
उस भिखारी की तरह पागल है, जो जन्म से दरिद्र होते हुए भी जिज्ञासा : क्या ऋद्धियों के साथ श्रेणी आरोहण संभव
अपने आपको चक्रवर्ती मान रहा हो। इससे तो वह मिथ्यादृष्टि कुछ अच्छा है जो अपने आपको दुखी अनुभव करता हुआ
सोचता है कि यह दुख मझे क्यों हो रहा है और यह कैसे नष्ट समाधान : ऋद्धियों के साथ श्रेणी आरोहण करने में
हो सकता है। इतना अवश्य है कि जो तत्वश्रद्धानी कभी कोई आपत्ति नहीं है अर्थात् अवधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञान
गृहस्थोचित बातों की तरफ से मन को मोड़कर एकसा विचार ऋद्धि को धारण करने वाले मुनिराज श्रेणी आरोहण कर
कर रहा हो कि मैं स्वभाव की अपेक्षा तो सिद्धों के समान सकते हैं या सर्वपूर्वित्व ऋद्धि को धारण करने वाले मुनिराज
निर्विकार हूँ। वर्तमान में कर्म संयोग के कारण बाह्य पदार्थों श्रेणी आरोहण कर सकते हैं। परन्तु इतना अवश्य जानना
में इष्ट-अनिष्ट कल्पना रुप विकार मुझमें हो रहा है, जिसे मुझे चाहिए किऋद्धियों का प्रयोग करते हए श्रेणी आरोहणसंभव
छोड़ना चाहिये इत्यादि। तो उसका यह विचार सद्विचार है नहीं है। क्योंकि ऋद्धि आरोहण करते समय शुक्ल ध्यान रूप
धर्मभावना रुप है और मंद लेश्या के होने से होने वाला यह महान एकाग्रता की आवश्यकता होती है जो ऋद्धि प्रयोग करते समय संभव नहीं है।
परिणाम स्वरुपाचरण या आत्मानुभूति या आत्मानुभव में
कारण माना गया है।' जिज्ञासा : क्या चतुर्थ गुणस्थान में आत्मानुभूति होती
आ. ज्ञानसागर जी महाराज के उपरोक्त प्रकरण के
अनुसार चतुर्थ गुणस्थान में आत्मविश्वास तो होता है परन्तु समाधान : इस प्रश्न का उत्तर आचार्य ज्ञानसागर जी
आत्मानुभूति अथवा स्वरुपाचरणरुपचारित्र कदापिनहीं होता। महाराज ने 'सम्यक्त्वसारशतकम्' नामक ग्रंथ में बहुत सुंदर
(7) प्रश्नकर्ता- कान्ताप्रसाद जी मुज्जफरनगर दिया है। उसी के अनुसार यहाँ लिखा जाता है, 'जब संज्वलन कषाय का तीव्र उदय न होकर मंद उदय होता है, तब यह
जिज्ञासा - क्या अभव्य अहमिन्द्र पद प्राप्त कर सकता जीव अपने पुरुषार्थ से उसमंद उदय को दबाकर या नष्ट करके अपने आप में लीन हो जाता है, उस लीन होने को | समाधान- सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नवग्रैवेयक, नव आत्मानुभव या आत्मानुभूति कहते हैं। यही स्वरूपाचरण | अनुदिश एवं पंच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए सभी देव स्वयं चारित्र है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को आत्मानुभूति तो नहीं होती | को इन्द्र समान उद्घोषित करने वाले होते हैं, अत: उन सबको मगर आत्म तत्व का विश्वास जरूर होता है। जैसे- किसी अहमिन्द्र कहा जाता है। जिज्ञासाकार का प्रश्न यह है कि व्यक्ति के तीन पत्र हैं, जिन्होंने नमक की डेली को उठाकर | अभव्य इन देवों में उत्पन्न होता है या नहीं? खाया वह नमकीन लगी, फिर जब उनको मिश्री के डेले दिये
समाधान यह है कि अनुदिश और अनुत्तर में उत्पन्न तो उन्होंने उनको भी नमक मानकर दूर फेंक दिया। तब पिता
होने वाले जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, सम्यग्दर्शन एवं भावलिंग ने कहा यह नमक नहीं किन्तु मिश्री है एवं नमकीन नहीं,
सहित दिगम्बर मुनि अवस्था धारण किए बिना इनमें उत्पन्न मीठी है। परन्तु पुत्रों ने नहीं माना। बाद में जब मिश्री के डेले
होना संभव नहीं होता। अतः इनमें अभव्य की उत्पत्ति संभव पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगी और नमक के डेले पर मक्खियां
नहीं है परन्तु अभव्य को संसार भ्रमण करते हुए पंच परावर्तन नहीं गई तब पिता ने फिरसमझाया। तीन पुत्रों में से एक पुत्र
करने होते हैं। इनमें चतुर्थ भव परावर्तन है। इसको पूरा करने को फिर भी विश्वास नहीं हुआ। अन्य दो पुत्रों में से एक पुत्र
के लिए चाहे भव्य हो या अभव्य सभी को नीचे सातवें नरक ने कहा कि पिताजी कह रहे हैं अत: यह मिश्री ही होगी, मीठी
तक, ऊपर नवम् ग्रैवेयक तक तथा मनुष्य एवं तिर्यंच आयु ही होगी। परन्तु तीसरे पुत्र ने तुरन्त मिश्री की डेली को |
के समस्त विकल्पों में उत्पन्न होना है आवश्यक होता है उठाकर चखा और कहा अहा, सचमुच मिश्री है, मीठी है।
तद्नुसार जब कोई अभव्य जीव भय परिवर्तन करते हुए इसीप्रकार से मिथ्यादृष्टि को तो आत्मतत्व पर विश्वास ही नहीं
ग्रैवेयकों के सभी आयु विकल्पों में उत्पन्न होता है तब वह होता। अविरत सम्यग्दष्टि को आत्मविश्वास मात्र ही होता है
अहमिन्द्र पद को अवश्य प्राप्त करता है। इस प्रकार अभव्य परन्तु शुक्लध्यानी जीव को आत्मानुभूति अथवा आत्मानुभव
भी अहमिन्द्र पद को प्राप्त करते हैं, यह स्पष्ट हुआ। रूप आनन्द की प्राप्ति होती है।
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, यदि कोई गृहस्थ होते हुए भी अपने आत्मस्वरुप का
आगरा - 282 002 28 मई 2005 जिनभाषित
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