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जिज्ञासा - समाधान
प्रश्नकर्ता: संगीता पवन कुमार जैन, नन्दुरबार जिज्ञासा : जीवन्धर स्वामी और भ. वर्धमान समकालीन थे। इनमें से पहले मोक्ष कौन गया ?
समाधान: जीवन्धरकुमार का सबसे प्राचीनतम चरित्र वर्णन उत्तर पुराण के 75वें पर्व में प्राप्त होता है। 75वें पर्व के श्लोक नं. 183 से श्लोक नं. 651 तक अत्यंत मनोहर जीवन्धर स्वामी के चरित्र का वर्णन है। इस पर्व के श्लोक नं. से 687 में इसप्रकार कहा है :
685
भवता परिपृष्टोऽयं जीवंधरमुनीश्वरः । महीयान् सुतपा राजन् संप्रति श्रुतकेवली ॥ 685 ॥ घातिकर्माणि विध्वस्य जनित्वा गृहकेवली । सार्धं विहृत्य तीर्थेशा तस्मिन्मुक्ति मधिष्ठिते ॥ 686 ॥ विपुलाद्रौ हताशेषकर्मा शर्माग्रमेष्यति । इष्टाष्टगुणसंपूर्णो निष्ठितात्मा निरञ्जनः ॥ 687 ॥ अर्थ : सुधर्माचार्य राजा श्रेणिक से कहते हैं कि राजन ! तूने जिसके विषय में पूछा था वे यही जीवन्धर मुनिराज हैं, ये बड़े तपस्वी हैं और इस समय श्रुतकेवली हैं। घातिया कर्मों को नष्टकर ये अनगार केवली होंगे और श्री महावीर भगवान के साथ विहारकर उनके मोक्ष चले जाने के बाद विपुलाचल पर्वत पर समस्त कर्मों को नष्टकर मोक्ष का उत्कृष्ट सुख प्राप्त करेंगे। वहाँ ये अष्टगुणों से सम्पूर्ण, कृतकृत्य और निरंजन कर्म कालिमा से रहित हो जावेंगे।
उपरोक्त प्रमाण के अनुसार पहले भगवान वर्धमान मोक्ष पधारे उसके बाद जीवन्धरकुमार को मोक्ष हुआ था। जिज्ञासा- सिद्धालय में पुद्गल द्रव्य सिद्धभगवन्तों पर क्या उपकार कर रहा है ?
समाधान पुद्गलकृत उपकार का वर्णन तत्वार्थ सूत्र अध्याय 5 के 19वें और 20वें सूत्र में कहा गया है:शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ 19 ॥ सुख-दुःख जीवित मरणोपग्रहाश्च ॥ 20 ॥
अर्थ : शरीर, वचन, मन और प्राणापान यह पुद्गलों
उपकार है ॥ 19 ॥
उपरोक्त सभी पुद्गलकृत उपकार अशुद्ध जीव पर ही संभव हैं। वर्तमान में जो सिद्ध भगवान सिद्धालय में विराजमान हैं, उन पर कोई भी उपकार संभव नहीं है। अतः वर्तमान में
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पं. रतनलाल बैनाड़ा सिद्धालय में विराजमान सिद्ध भगवन्तों पर किसी भी पुद्गल द्रव्य का कोई भी उपकार नहीं मानना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : श्रीमती ज्योति लुहाड़े, कोपरगांव जिज्ञासा : आयुकर्म का संघातन, परिशातन से कोई संबंध है क्या ?
समाधान : श्री धवलापुस्तक - 9, पृष्ठ 26-27 पर संघातन, परिशातन की परिभाषा इस प्रकार कही है- 'पाँचों शरीरों में से विवक्षित शरीर के परमाणुओं का निर्जरा के बिना जो संचय होता है उसे संघातन कृति कहा जाता है । '
भावार्थ : पाँचों शरीरी के योग्य नोकर्म वर्गणाओं के समूह को प्रत्येक जीव प्रतिसमय ग्रहण करता है। वह ग्रहण करना संघातन कहा जाता है और प्रतिसमय शरीर से जो नोकर्म वर्गणायें निर्जरित होती हैं उसे परिशातन कहा जाता है। यह संघातन-परिशातन की क्रिया केवल पाँचों शरीरों के योग्य नोकर्म वर्गणाओं में होती है अन्य में नहीं। आयुकर्म की कार्मण वर्गणाओं की तो बंध और निर्जरा होती है। इसप्रकार आयुकर्म का संघातन-परिशातन से कोई संबंध नहीं है ।
छेदोपस्थापना चारित्र होता है अथवा नहीं? जिज्ञासा : परिहारविशुद्धि चारित्र वाले मुनि के
समाधान : परिहारविशुद्धि संयम के धारी मुनिराज सामायिक और छेदोपस्थापन चारित्र के धारी होते हैं। इस संबंध में पंचसंग्रह में इसप्रकार कहा है, 'पंचसमिदो तिगुत्तो परिहरइ सया वि जोहु सावज्जं । पंचजमेयजमो वा परिहारयसंजदो
साहू (131)
अर्थ - पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होकर सदा ही सर्व सावद्य योग का परिहार करना तथा पाँच यमरूप भेद संयम (छेदोपस्थापना) को अथवा एक यमरूप अभेद संयम (सामायिक) को धारण करना परिहार विशुद्धि संयम है। और उसका धारक साधु परिहार विशुद्धि संयत कहलाता है।'
भावार्थ- परिहार विशुद्धि चारित्र वालों के सामायिक और छेदोपस्थापना दोनों चारित्र होते हैं ।
श्लोकवर्तिक में तत्वार्थसूत्र अध्याय 9/47 की टीका करते हुए आ. विद्यानन्द महाराज ने लिखा है कि, 'कषाय कुशील साधु तो सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपराय नाम के चारों संयमों में प्रवृत्त रहे हैं । अर्थात् कषाय कुशील मुनियों के चारों चारित्र पाये जाते हैं ।'
तत्वार्थसूत्र अध्याय 10/9 की टीका करते हुए सभी आचार्यों ने पाँचों चारित्र वाले मुनियों को सिद्धपद प्राप्त होने की
मई 2005 जिनभाषित 27
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