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________________ जैन संस्कृत महाविद्यालयों की दशा और दिशा : एक चिन्तन धर्मचंद्र वाझल्य डॉ. अनेकान्तकुमार जैन का 'जिनभाषित' पत्रिका | में संसाधन जुटाये तो इसमें कोई दोष नहीं है। इसके साथ अंक फरवरी-मार्च 2005 में 'जैन संस्कृत महाविद्यालयों- | शास्त्रीय परीक्षा पास युवक लेखन, अन्वेषण इत्यादि कार्य छात्रों की दशा और दिशा' लेख पढ़ा। उनका अनुभव-परक | कर अपना कैरियर भी बना सकता है। यदि ऐसे युवक यह लेख मन को झिंझोड़ता है। विद्यार्थी में अन्तर्द्वद्व क्यों उठा अपेक्षा रखते हैं कि शास्त्री परीक्षा पास करने के बाद उन्हें उसका कारण उसे स्वयं या उसके अभिभावकों को खोजना | आई.ए.एस., आई.पी.एस. इत्यादि समकक्ष परीक्षाओं में बैठने होगा। अध्ययन हेतु विषय सुनिश्चित करने के पश्चात् | का अवसर मिले तो, यह भी संभव है। विद्यालयों में प्रवेश किया जाता है। एक बार जब विषय चुन जहां तक सांप्रदायिक मनोवृत्ति का प्रश्न है उससे लिया गया तो छात्र को कैरियर भी वहीं बनाने का संकल्प | बच पाना अत्यंत कठिन है? मिथ्यात्व तो सम्यक्त्व के करना होगा, अन्यथा 'पढ़े फारसी बेचें तेल ये देखो कर्मों के विपरीत है। अन्य शास्त्रों का अध्ययन करना एवं दोनों में खेल' वाली कहावत चरितार्थ हो जायेगी। भ्रम रोग से ग्रसित विवेकपूर्वक भेद करना विद्यार्थी नहीं सीखता है, तो उसे विद्यार्थी का मन न तो पढ़ने में लगेगा न ही कैरियर बना सिखाया जाना अनिवार्य है। जब तक अन्य ग्रंथों का अध्ययन पायेगा। कैरियर और अध्ययन को अलग-अलग करना नहीं करेंगे तब तक श्रद्धा दृढ़ नहीं हो सकती। अब कई ऐसे भूल होगी। वैसे यह भ्रम रोग प्रायः सभी जगह सभी प्रश्न उठते हैं जिनका उत्तर लेखक को सुझावरूप में देना ही विद्यालयों में प्रवेश लेने वाले छात्रों में देखा जाता है। ऐसे चाहिए। मात्र समस्या उछाल देना पर्याप्त नहीं है, उसका विद्यालयों का क्या उद्देश्य है इस पर भी दृष्टिपात करना संभावित समाधान भी वे विद्वान ही दे सकते हैं जिन्होंने होगा। समाज में जैनधर्म विषयक विद्यालय दो उद्देश्यों से समस्या का सामना किया है। प्रश्न ये हैंखोले गये हैं : ___1. सही नियोजन आप किसे समझते हैं एवं उसके 1 जैन दर्शन में अन्वेषण, प्रचार-प्रसार एव । लाया ? विभिन्न संस्थाओं में प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध कराना। 2. चिरकालिक वृहद् योजना क्या हो सकती है? ऐसे बच्चे जो आर्थिक कठिनाई के कारण शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ हैं उन्हें सस्ती, अच्छी एवं ___ 3. प्रतिभा का सदुपयोग क्या है और किसे करना धार्मिक शिक्षा उपलब्ध कराना, जिससे उनका चरित्रनिर्माण | हो सके एवं समाज को जैनधर्म के विद्वान मिल सकें। यदि स्नातक स्वयं अपनी प्रतिभा का सदुपयोग नहीं कर पाता है, तो उसमें विद्यार्थी का एवं समाज का दोनों का अब प्रश्न उठता है कि क्या संस्थापक अपने उपरोक्त दोष हो सकता है। देखने में यह आया है शास्त्रीपरीक्षा उत्तीर्ण उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल हैं एवं पाठ्यक्रम में सुधार की ही नहीं, अन्य विषयों में उत्तीर्ण स्नातक उदाहरण के लिये आवश्यकता है? इंजीनियरिंग, कामर्स, मेडिकल फील्ड से निकले छात्र भी डॉ. अनेकान्तकमार जी के लेख से लगता है कि ऐसे अपनी शिक्षा का सही-सही उपयोग नहीं कर पाते हैं। इसके विद्यालय अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल नहीं हैं। मैं इस कारण अनेक हो सकते हैं। यदि आप सारा दोष धार्मिक बात से असहमत हूँ, क्योंकि इन विद्यालयों ने वर्तमान में डॉ. | शिक्षा और समाज पर थोप दें, तो भी ठीक नहीं है। चिन्तन अनेकान्तकुमार जैसे विद्वान व्यक्ति समाज को दिये हैं। कर समाधान देना होगा एवं रचनात्मक कार्यक्रम बनवाकर यदि शास्त्रीय पद्धति से शिक्षित युवक से समाज | | बिना नगाड़ा बजाये क्रियान्वयन कराना होगा । अपेक्षा रखती है की वे धर्मप्रचार करके संस्थाओं को चलाने ए-91, शाहपुरा भोपाल 24 मई 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524296
Book TitleJinabhashita 2005 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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