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________________ ने अपने अध्यक्षीय विशेषाधिकार से इस लेख को छपा दिया । आम पाठक तो यही समझता है कि पत्र में जो भी छपता है, उसके लिए सम्पादक ही उत्तरदायी है । कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि उसकी सहमति के बिना भी कुछ छप सकता है। यहाँ कहा जा रहा है कि 29 मार्च की घटना में इस लेख से उपजा आक्रोश भी एक कारण यद्यपि वह थी तो एक बचकानी शरारत ही, फिर भी इस लेख के सन्दर्भ में यह स्पष्टीकरण देना हम आवश्यक समझते हैं। I यह आलेख प्रकाशित करने के लिए श्रीमान् सेठीजी ने अपने कवरिंग लेटर (दिनांक 5 जनवरी 2005) के साथ भेजा था। बाद में श्री प्रसन्न आग्रेकर, कारंजा (महाराष्ट्र) के द्वारा डाक से प्रेषित यही आलेख हमें पुनः मिला। यह छह पृष्ठों में टाईप किया हुआ आलेख मुनि श्री विश्वेशसागरजी एवं ऐलक श्री विवर्धनसागरजी के नाम से था, परन्तु उस पर उनके हस्ताक्षर नहीं थे । बिना हस्ताक्षर का लेख हम कैसे छापते ! फिर हमें यह भी पसन्द नहीं था कि वीतरागमार्ग के पथिक आज के राजनेताओं की तरह रागद्वेषवर्धक ऐसी बहसों में उलझें । सन्तों को तो स्वदोष - शान्ति की भावना रखते हुए अपने अशुभ कर्मोदयजन्य पाप - ऋण को समतापूर्वक चुकाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। लम्बी बयानबाजी करना तो नेताओं का गुण है, सन्तों का नहीं। हमने अपना मन्तव्य श्रीमान् सेठीजी को स्पष्ट बता दिया था, पर उन्होंने इसे ब्र विशल्य भारती, जो इसके लेखक नहीं हैं, के नाम से छपा दिया। लोगों ने इसके लिए जिम्मेदार हमें समझा । श्रीमान् सेठीजी के सेवा-समर्पण के हम प्रशंसक रहे हैं, आज भी हैं, पर कुछ प्रसंगों पर हम उनसे सहमति नहीं रखते। आज जो वातावरण है, उसमें शिथिलाचार के निवारण को हम एक अशक्यानुष्ठान मानते हैं। समाज इस मुद्दे पर दो खेमों में बँटा हुआ है। हर खेमा इलज़ाम की गेंद को दूसरे के पाले में ठेलता रहता है। आत्मावलोकन के लिए कोई भी तैयार नहीं है । जरा-जरा सी बात पर कषाय भड़क उठती है । अपना-अपना स्वार्थ साधने की प्रवृत्ति भी अपना काम करती है। ऐसी स्थिति में हमने ऐसे प्रसंगों पर माध्यस्थ भाव बनाए रखने पर जोर दिया है। हमारी नीति रही है कि शिथिलाचार की हम निन्दा न कर सकें तो कोई बात नहीं, पर उसे 'हाईलाइट' भी नहीं करना चाहिए। कुछ लोग इससे सहमत नहीं हैं। सबकी अपनी-अपनी राय है, कोई क्या कर सकता है ! Jain Education International अभी दिनाँक 10 मार्च के अंक में भाई भरत काला ने भी एक चुभने वाली पंक्ति लिख दी- "कपड़ों में रहकर साधु की श्रेष्ठता की मात्र चर्चा कर कीचड़ फेंकनेवाले तथाकथित प्राचार्य डाक्टर डिग्रियों से युक्त विद्वानों का कोलाहल अपने आप बन्द हो जायेगा, यह निश्चित है (पृष्ठ 7 कालम 2)।" उनका अभिप्राय या संकेत किसकी ओर है और क्यों हैं, यह तो वह जानें, पर ऐसे कूटलेखन से हमें कष्ट हुआ है। महासभा के सर्वोच्च पदाधिकारी और उसके मुखपत्र के सम्पादक के मध्य यदि विचार-साम्य नहीं होगा तो भ्रम भी फैलेंगे और कठिनाइयाँ भी बढ़ेंगी। इसलिए दो दिन पूर्व ही हमने उनसे फोन पर हमारे 29 जून के त्यागपत्र को अविलम्ब स्वीकार करने का नम्र निवेदन कर दिया है। हमारा यह निर्णय अपरिवर्तनीय है । एक पाठक एवं एक लेखक के रूप में हम, यदि वह चाहेंगे तो, पत्र से भविष्य में भी जुड़े रहेंगे। यह कदम हम अपनी मनःशान्ति के लिए उठा रहे हैं। क्षमा प्रार्थना गत 22 वर्षो से हम 'जैनगजट' से जुड़े रहे हैं। इस अवधि में अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार यथाशक्ति जितनी और जैसी सेवा हमसे बन पड़ी, हमने की है। इस लम्बी अवधि में बहुत-सी भूलें भी जाने या अनजाने में हुई होंगी । हम हृदय से उनके लिए क्षमाप्रार्थी हैं । महासभा के अनगिन सदस्यों और पदाधिकारियों का जो प्यार हमें मिला, उसके प्रति कृतज्ञ हैं । हमारे किसी भी कथन या क्रिया से सन्तों के मन को कोई ठेस पहुँची हो तो यह भी हमारे लिए प्रायश्चित और पश्चाताप का विषय है। जिस सन्त के जीवन में अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाती है, उसके सान्निध्य में तो शत्रुता रखनेवाले प्राणी भी वैर त्याग देते हैं (अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ' - पातंजल योगदर्शन) । उनकी उस समता को नमन । एमर्सन के इस कथन को अपने दृष्टिपथ में रखकर हम विराम ले रहे हैं "यदि तुम पूर्ण स्वतन्त्र नहीं हो सकते हो तो जितने स्वतन्त्र हो सको, उतने ही हो जाओ।" जीवन्तु जन्तवः सर्वे क्लेश- व्यसनवर्जिताः । प्राप्नुवन्तु सुखं त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम् ॥ For Private & Personal Use Only 104, नई बस्ती, फिरोजाबाद (उ.प्र.) मई 2005 जिनभाषित 23 www.jainelibrary.org
SR No.524296
Book TitleJinabhashita 2005 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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