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अन्तर्मन की पुकार
प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन _ 'विधिदेवस्तानि घटयति, यानि नरो नैव चिन्तयति'- | नए उत्साह से कार्य शुरू कर दिया था, पर अब लगता है अपने नगर फिरोजाबाद में गत 21 मार्च को जो हुआ, उससे | कि यह हमारी भूल थी। उस समय जिन बिन्दुओं पर सहमति मन आहत है। घटना के पीछे कोई भी तात्कालिक कारण | बनी थी, उनमें दो बिन्दु मुख्य थे- (1) शिथिलाचार को नजर नहीं आता। कोई पुरानी गाँठ हो तो सर्वज्ञ जाने। हम तो | | महिमा-मण्डित नहीं किया जायेगा तथा (2) सिद्धान्तों पर इतना ही कह सकते हैं कि अहिंसा-प्रधान जैनसंस्कृति में | व्यावसायिकता की छाया न पड़े, ऐसा प्रयास होगा। यह नहीं विचार का उत्तर विचार से तो दिया जा सकता है, किन्तु | हो सका, इसमें हमारी ही कोई कमी रही होगी। प्रहार से कदापि नहीं। मतभेद को मनभेद में बदलना हिंसा | लिखना-बोलना तो हमारे लिए श्वाँस की तरह जरूरी है, उससे सभी को बचना चाहिए।
है, पर अब हम केवल सकारात्मक ही लिखेंगे और किसी इस घटना पर पहली प्रतिक्रिया 'समन्वय वाणी' के | की नुक्ताचीनी करने से बचेंगे। कोशिश करेंगे कि 'गणताजा अंक में पढ़ने को मिली है। प्रिय भाई अखिल जी ने | ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे।' उसके पीछे जो नए अनुमान और नए अर्थ खोजे हैं, उस पर | हर दशा में संयत और अनुशासित रहेंगे। प्रशंसा में कछ भी कहकर हम किसी की खुशी को कम नहीं करना | फलेंगे नहीं और निन्दा या आलोचना में आपा नहीं खोयेंगे। चाहते। कल्पना करने के लिए तो सभी जीव स्वतन्त्र हैं। | तकदीर यदि जहन्नुम भी अता करेगी तो उसे भी बहिश्त हमारे लिए तो यही सन्तोष की बात है कि नए ज़ख्म देकर | मानकर आनन्दित बने रहने का पुरुषार्थ करेंगे। भी उन्होंने घटना की निन्दा ही की है।।
सभी लोग दुआ दें कि हम इन संकल्पों का ठीक से इस अघटित घटित' के बाद हमें एक चीनी विचारक | निर्वाह कर सकें। यदि कहीं स्खलन दिखे तो मित्रगण हमें चिंग चाओ की ये पंक्तियाँ बार-बार याद आती हैं
सावधान अवश्य करते रहें। "जो समय चिन्ता में गया, समझो कूड़ेदान में गया ।
___ एक आवश्यक स्पष्टीकरण जो समय चिन्तन में गया, समझो तिजोरी में गया।"
'जैनगजट' के 2 दिसम्बर के अंक में शास्त्रिपरिषद् अब तक धर्म और समाज के क्षेत्र में होनेवाली | के अध्यक्ष के नाते हमारी एक सामयिक अपील 'समय की अरुचिकर घटनायें हमें चिन्ता में डालती थीं, किन्तु इस | पुकार' शीर्षक से छपी थी, जिसका प्रबुद्धजनों ने स्वागत घटना ने हमारे लिए चिन्तन के नए द्वार खोले हैं। इस चिन्तन | किया था। गत 24 फरवरी के अंक में 'जिनभाषित' में श्री के मध्य रोशनी की एक किरण ने हमें सोते से जगाकर कहा | मूलचन्द जी लुहाड़िया के एक लेख के प्रत्युत्तर में ब्र. है- "वत्स! अब तुम सभी झमेलों से दूर रहो। तुम केवल सुझाव | विशल्य भारती के नाम से एक लम्बा लेख छपा, जिसकी दे सकते हो, किन्तु किसी को सुधार नहीं सकते। यदि सुधारना वजह से हमें लोगों की रोषभरी बातें सुननी पड़ीं। कई चाहते हो तो केवल स्वयं को सुधारो।"
पाठकों ने कड़े पत्र लिखे और कई ने फोन पर नाराजी व्यक्त अपने जीवन के 72 वें बसन्त में रोशनी की इस | की। म.प्र. श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष श्री प्रकाश जैन किरण ने कुछ संकल्प लेने के लिए हमें प्रेरित किया है- | 'रोशन' ने तो अपने 6 मार्च के पत्र में इस आलेख को
हम किसी संस्था में अब कोई नया पद स्वीकार नहीं | एकपक्षीय बताते हुए लिखा कि हमने ब्र० पोटी के अनेक करेंगे। पद ही तो विपद का कारण है। शास्त्रिपरिषद के | विचार आपको भेजे, पर आपने उन्हें नहीं छापा। क्या यह अध्यक्षपद से आगामी दो-तीन माह में हम 'रिटायर' होने | आपकी कथनी और करनी के अन्तर को उजागर नहीं जा रहे हैं और स्वान्तः सुखाय 'जैनगजट' के सम्पादन- करता? और भी ऐसे बहुत से 'कमेण्ट्स ' हैं, जिन्हें हम दायित्व से मक्त होने का मन भी हमने बना लिया है।। लिखना या दुहराना नहीं चाहते। त्यागपत्र तो हम गत वर्ष 29 जून को ही दे चुके थे, किन्तु | हमें पहले से ही यह आभास था कि इस लेख के नवम्बर में कुछ बिन्दुओं पर सहमति बनने और अपने शुभ- | छपते ही तीखी प्रतिक्रियायें होंगी, इसीलिए हमने इस लेख चिन्तकों के स्नेहपूर्ण अनुरोध का आदर करते हुए हमने पुनः | को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दी थी। श्रीमान् सेठीजी
22 मई 2005 जिनभाषित
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