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स्वातन्त्र्य' का है। इसे ही अकर्त्तावाद या कर्मवाद कहते हैं। | के साथ सहन करें। वस्तु का परिणमन स्वतंत्र/स्वाधीन है। अकर्त्तावाद का अर्थ है - "किसी ईश्वरीय शक्ति/सत्ता से | मन में कर्तृत्व का अहंकार न आये और ना ही किसी पर सृष्टि का संचालन नहीं मानना।" ईश्वर की प्रभुता/सत्ता को | कर्तृत्व का आरोप हो। इस वस्तु - व्यवस्था को समझकर मानना, पर कर्तृत्व में नहीं। भगवान् कृतकृत्य हो गये हैं, | शुभाशुभ कर्मों की परिणति से पार हों, आत्मा की शुद्ध दशा इसलिए अब वह किसी तरह के कर्त्तव्य में नहीं हैं। कण- प्राप्त करें। बस यही धर्म-चतुष्टय भगवान महावीर स्वामी के कण और क्षण-क्षण की परिणति स्वतन्त्र/स्वाधीन है। प्रत्येक सिद्धान्तों का सार है। व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से महान् जीव अपने द्वारा किये हुए कर्मों का ही फल भोगता है।। बनता है। यह उद्घोष भी महावीर की चिन्तनधारा को व्यापक उसके शुभ कर्म उसे उन्नत और सुखी बनाते हैं जबकि | बनाता है। इसका आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति मानव से अशुभ कर्म अवनत और दुःखी बनाते हैं। जन्नत और दोजख | महामानव, कंकर से शंकर और भील से भगवान बन सकता (स्वर्ग या नरक) का पाना प्राणी के द्वारा उपार्जित अच्छे-बुरे | है। नर से नारायण और निरंजन बनने की कहानी ही भगवान् कर्मों का फल है। इसे किसी अन्य के कारण नहीं, अपने | महावीर का जीवन - दर्शन है। कर्म के कारण ही पाते हैं। यही अवधारणा कर्मवाद अथवा किसी भी मनुष्य की सबसे बड़ी परीक्षा उसके अकर्त्तावाद का सिद्धान्त है। कहा भी गया है -
आचार - विचार से नहीं बल्कि उसकी 'वाणी' से होती कोऊन काऊ सुख दुख करिदाता,
है। निज कृत कर्म भोग फल भ्राता।
जो व्यक्ति समस्त जगत के कल्याण के लिए कर्मप्रधान विश्व करि राखा,
सोचता है, उसका खद का कल्याण तो अपने आप ही जो जस करे सो तस फल चाखा॥
हो जाता है। यह सिद्धान्त इसलिए भी प्रासंगिक है कि हमें अपने
आर. के. हाऊस, किए गए कर्म पर विश्वास हो और उसका फल धैर्य, समता |
मदनगंज-किशनगढ़
पर्यावरण-पद
श्री पाल जैन 'दिवा'
सखे सुन हरियाली मन भाय। सखे गुन हरियाली मन भाय।
पात-पात में प्राण बसे हैं, कोषा चेत जगाय। हरितपर्ण नित रंग जमावे, सावन ज्यों हरियाय। प्राणवायु के कोष लुटावे, सफल विटप सुमनाय। मन तो सावन का अंधा है, केवल हरा सुझाय। धरती के परिधान हरे हों, हरियाली नग छाय। 'जिओ और जीने दो' भाई, पर्यावरण शुधाय।
सखे सुन मनहि हरा हरयाय।
सखे गुन मनहि हरा हरियाय। पादप के अंकुर स्वर्णाभा, नन्हें हाथ हिलाय। मूंगा की छवि रंग चढ़ावे, चेता-चेत बुलाय। प्राणवायु के घर बनने को, पात-पात थिरकाय। शाखा की छाती पर फूटे, पात पूत हरषाय। धरती माँ का रंग निराला, रस औ, रंग हराय। रंग-बिरंगे सुमन लुभावे, पवन सुगन्ध फैलाय। उड़े पराग मधुप पद लिपटे, भारी पाँव फलाय। शीतल छाया की माया है, पर्यावरण सभाय।
शाकाहार सदन एल. 75, केशरकुंज, हर्षवर्द्धन नगर, भोपाल -3
मई 2005 जिनभाषित 21
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