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भगवान महावीर के सिद्धांत
प्रस्तुति : श्रीमती सुशीला पाटनी अहिंसा
| आदि में आदिनाथ के पुत्र भरत और बाहुबली के बीच प्राणियों को नहीं मारना, उन्हें नहीं सताना । जैसे हम | वैचारिक टकराहट हुई, फिर युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। सुख चाहते हैं, कष्ट हमें प्रीतिकर नहीं लगता, हम मरना नहीं | मंत्रियों की आपसी सूझबूझ से उसे टाल दिया गया और चाहते, वैसे ही सभी प्राणी सुख चाहते हैं. कष्ट से बचते हैं निर्धारित दृष्टि, जल और मल्लयुद्ध के रूप में दोनों भ्राता
और जीना चाहते हैं। हम उन्हें मारने/सताने का भाव मन में अहिंसक-संग्राम में सामने आये। उस समय यह दो व्यक्तियों न लायें, वैसे वचन न कहें और वैसा व्यवहार/कार्य भी न | की लडाई थी। फिर राम-रावण का युग आया, जिसमें दो करें। मनसा, वाचा, कर्मणा प्रतिपालन करने का भगवान | व्यक्तियों के कारण दो सेनाओं में युद्ध हुआ, जिस युद्ध में महावीर का यही अहिंसा का सिद्धांत है। अहिंसा, अभय हथियारों का प्रयोग हुआ। हम और आगे बढ़े, महाभारत के और अमन चैन का वातावरण बनाती है । इस सिद्धांत का | काल में आये, जिसमें एक ही कुटुम्ब के दो पक्षों में युद्ध सार-सन्देश यही है कि 'प्राणी-प्राणी के प्राणों से हमारी | हुआ और अब दो देशों में युद्ध होता है। पहले भाई का भाई संवेदना जुड़े और जीवन उन सबके प्रति सहायी/सहयोगी | से, फिर व्यक्ति का व्यक्ति से, फिर एक पक्ष का दूसरे पक्ष बनें।' स्वाद, सौन्दर्य और सम्पदा की सम्पूर्ति में इन्सान | से और अब एक देश का दूसरे देश से युद्ध चल रहा है । जाने/अनजाने निरन्तर हिंसा से जुड़ता जा रहा है। आज जब | युद्ध का परिणाम सदैव विध्वंस ही निकलता है। हमें संघर्ष हम वर्तमान परिवेश या परिस्थिति पर विचार करते हैं तो नहीं शान्ति चाहिए और यदि सचमुच ही हमने शान्ति का लगता है कि जीवन में निरन्तर अहिंसा का अवमूल्यन होता | ध्येय बनाया है तो अनेकान्त का सिद्धान्त, 'भी' की भाषा, जा रहा है।
अनाग्रही व्यवहार को जीवन में अपनाना होगा। मेरी अवधारणा तो यही है कि अहिंसा का व्रत जितना | अपरिग्रह प्रासंगिक भगवान महावीर के समय में था उतना ही, और | भगवान महावीर का तीसरा सिद्धान्त अपरिग्रह है। उससे कहीं अधिक प्रासंगिक आज भी है। इसलिए व्यक्ति, | परिग्रह अर्थात् संग्रह। यह संग्रह मोह का परिणाम है। जो समाज, राष्ट्र और विश्व की शान्ति/समृद्धि के लिए भगवान् | हमारे जीवन को सब तरफ से घेर लेता है, जकड़ लेता है, महावीर द्वारा दिया गया "जियो और जीने दो" का नारा | परवश/पराधीन बना देता है, वह है परिग्रह। धन/पैसा को अत्यन्त महत्वपूर्ण और मूल्यवान है।
| आदि लेकर प्राणी के काम में आनेवाली तमाम वस्त/सामग्री अनेकान्त
परिग्रह की कोटि में आती हैं। ये वस्तुएँ हमारे जीवन को भगवान महावीर का दूसरा सिद्धांत अनेकान्त का है। आकुल-व्याकुल और भारी बनाती हैं। एक तरह से परिग्रह अनेकान्त का अर्थ है - सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, अनाग्रह | वजन ही है और वजन हमेशा नीचे की ओर जाता है। तराजू की स्थिति। इसे ऐसा समझ सकते हैं कि वस्तु और व्यक्ति का वह पलड़ा जिस पर वजन ज्यादा हो, स्वभाव से नीचे विविध-धर्मी हैं। जिसका सोच, चिंतन, व्यवहार और स्थान- | की ओर जाता है; ठीक इसी तरह से यह परिग्रह मानवस्थिति अन्यान्य दृष्टियों से भिन्न-भिन्न है। इस सिद्धान्त के | जीवन को दु:खी करता है, संसार को डुबोता है। भगवान् सम्बन्ध में साफ-साफ बात यह है कि एकान्त ही भाषा 'ही' | महावीर ने कहा- या तो परिग्रह को पूर्णतः त्यागकर तपश्चरण की भाषा है, रावण का व्यवहार है, जबकि अनेकान्त की | के मार्ग को अपनाओ अथवा पूर्णत: त्याग नहीं कर सकते भाषा 'भी' की भाषा है, राम का व्यवहार है। राम ने रावण | तो कम से कम आवश्यक सामग्री का ही संग्रह करो। के अस्तित्व को कभी नहीं नकारा, किन्तु रावण राम के | अनावश्यक, अनुपयोगी सामग्री का तो त्याग कर ही देना अस्तित्व को स्वीकारने के लिये कभी तैयार ही नहीं हुआ। | चाहिए। आवश्यक में भी सीमा दर सीमा कम करते जायें। यही विचार और व्यवहारे संघर्ष का जनक है, जिसका | यही 'अपरिग्रह' का आचरण है, जो हमें निरापद, निराकुल परिणाम विध्वंस/विनाश है। अनेकान्त में विनम्रता/सद्भाव | और उन्नत बनाता है । है, जिसकी भाषा 'भी' है। यही अनेकान्त की दृष्टि दुनियाँ | आत्म स्वातन्त्र्य के भीतर-बाहर के तमाम संघर्षों को टाल सकती है। युग के भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत 'आत्म20 मई 2005 जिनभाषित
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