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________________ तिलक का अतीत : पुराने जमाने में तिलक लगानेवाले श्रावकों की गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा थी । न्यायालय में भी तिलकधारी जैन जाता था तो उसके वचन पर कभी अविश्वास नहीं किया जाता था। तिलक करनेवाले व्यक्ति गौरवपूर्वक जीवनयापन करते थे। शिर पर मुकुट धारण करने की अपेक्षा तिलक धारण करने का गौरव अनोखा है 1 तिलक का आकार : तिलक का आकार मंदिर के शिखर जैसा है। शिखर नीचे से विस्तृत चौड़ा होता है और ऊपर जाने पर सिकुड़ा हुआ-सा, तिलक भी ऐसे आकार का होने चाहिये जो यह सूचित करे । तिलक के स्थान : उमास्वामीजी ने श्रावकाचार में तिलक के नौ स्थान बतलाये हैं- मस्तिष्क, दायाँ कान, बायाँ कान, दायीं बाजूबंद, बायीं बाजूबंद, गला, दायीं हाथ की कलाई, पीठ, नाभि । तिलक लगाने से शरीर शुद्ध हो जाता है । यह इन्द्र के आभूषण का प्रतीक भी है। इसके बिना इन्द्र की पूजा निरर्थक होती है । तिलक के अवसर : तिलक हमेशा पूजा प्रारम्भ करने से पहले किया जाता है, क्योंकि पूजा कीप्रवृत्ति से पूर्व उस व्यक्ति की निष्ठा का स्वीकार होता है। तिलक लगाने से शक्तियों का संचार होता है। ऐसी शक्तियों को जागृत करने के लिये सहस्रार चक्र को गतिमान करने की आवश्यकता है। सहस्रार चक्र को गतिमान करने के लिये आज्ञाचक्र को जागृत करने की आवश्यकता है और ऐसी जागृति करने के लिये हमारी शक्तियों के प्रवाह को उस स्थान की ओर प्रवाहित करने की आवश्यकता है और वैसी शक्ति तिलक लगाये बिना हम उस ओर प्रवाहित नहीं कर सकते। सन्दर्भ : 1. 2. 3. 4: 5. 6. लघु विद्यानुवाद पृ. 37 भारत में संस्कृति एवं धर्म- डॉ. एम. एल. शर्मा- रामा पब्लिशिंग हाऊस, बड़ौत, मेरठ पृ. 106, सन् 1969 जैन हिन्दी पूजा काव्य : डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दिति, पृ 376 संस्कृत हिन्दी कोश- वामन शिवराम आप्टे रचना प्रकाशन, जयपुर मन्दिर-मुनि अमितसागरजी महाराज, पृ-29-30, प्रकाशक चन्द्रा कापी हाउस आगरा, संस्करण 1998 उमास्वामी श्रावकाचार अन्तर्गत श्रावकाचार संग्रह भाग-3, सं. हीरालाल शास्त्री, पृ-162, श्लोक 120-122 Jain Education International जैन अनुशीलन केन्द्र राज. विश्वविद्यालय, जयपुर 'आओ मनायें आज जयंती कुण्डलपुर के वीर की । वर्तमान में प्रासंगिक हैं, शिक्षाएँ महावीर की । 44 'जियो और जीने दो' सबको, शुभ संदेश सुनाया था । कर्ता ही सुख-दुःख का भोगी, हम सबको समझाया था । अनेकांत के दर्शन को खुद, सच्चे मन से जाना था। नैतिक बल के चमत्कार को, निज मन पहचाना था बाधा का हल स्वयं निकाला, नाशित नए शरीर की। (1) हाथों में हथकड़ी पाँव में, बेड़ी दण्ड कड़ा था। आसमान से चन्दनबाला, का संकल्प बड़ा था। कर्मशत्रु से लड़ते-लड़ते तीर नदी के आए थे । मिला तेज से तेज देख, सुर किन्नर नर हर्षाए थे । माटी गंध विखेर रही है, ऋजुकूला के तीर की। (2) हिंसा झूठ कपट को तजकर, चोरी परिग्रह को छोड़ें। सत्य अहिंसा व्रत अपनाकर, व्यसनों से हम मुँह मोड़ें। आदर्शों को धारण करके, चलें मोक्ष की राह में, फिर से आई वीर जयंती, संकल्पों की चाह में । हम सब आचरणों में ढालें, शिक्षायें अतिवीर की । For Private & Personal Use Only आओ मनायें आज जयंती, कुण्डलपुर के वीर की। (3) मनोज जैन 'मधुर' C5/13, इन्दिरा कालोनी, बाग उमराव दुल्हा, भोपाल - 10 मई 2005 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org
SR No.524296
Book TitleJinabhashita 2005 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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