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________________ उससे अपरिग्रह का जन्म होता है। लेकिन परिग्रह विक्षिप्त हो । सत्य है कि हम 'वीतरागी' बनें। बहुत बड़ा दर्शन है यह । गया हो और पाने की लालसा पागलपन में बदल गयी हो तो ऐसी विक्षिप्तता से चोरी का जन्म होता है। आक्रमण और युद्ध की शरुआत ऐसे ही पागलपन का परिणाम है। राग-आसक्ति-सम्मोहन उतना ही पीड़ादायी है जितना द्वेष, मूर्च्छना या विछोह । द्वेष से तो उपन्त होना आसान है लेकिन राग से अलग हो पाना बहुत मुश्किल है। क्रोध और मानस्वस्थ परिग्रह आवश्यकता और आवश्यक भोग पर द्वेष रूप कषाय है जिन्हें बुद्धिपूर्वक छोड़ा जा सकता है परन्तु खड़ा है। माया और लोभ - राग रूप कषाय है, जिन्हें छोड़ पाना कठिन होता है । 'वीतराग' है इस राग से परे अनासक्त भावों का अन्दर सृजन करना । वीतराग है- गाय का बछड़े को बिना भविष्य की कोई कामना लिए उसे दूध पिलाना। वीतरागी बनना - एक लोकोत्तर स्थिति है और उस वीतराग को पाने की कला है वीतराग विज्ञान विज्ञान एक Process है एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हमारी अभिकल्पना यथार्थ बनती है। 1 अस्वस्थ परिग्रह आकांक्षा पर खड़ा है। आवश्यकता और आकांक्षा में वैसा ही अन्तर है जैसा पेट और पेटी में। भूखे पेट को भरना आवश्यकता है, परन्तु पेटी को भरना आकांक्षा है क्योंकि पेटी का आकार जैसे-जैसे वह भरती जाती है और बढ़ता जाता है। तिजोरी या खजाने की पूजा हमें सुख नहीं दे सकती । तिजोरी का सुख है कि वह मानवता के उद्धार के लिए खुली रहे। बंद तिजोरी का सुख - वासना का सुख है, मृगतृष्णा का सुख है । अतः भगवान् महावीर को जीने का प्रयास हो । महावीर को जानने भर से जीवन का रूपान्तरण नहीं हो सकेगा, क्योंकि जानकारियाँ प्रज्ञा को जन्म नहीं दे सकतीं। महावीर प्रज्ञा से पाये जा सकते । महावीर को उपलब्ध करने का सीधा मतलब है, उनका यशानुगामी बनना । महावीर का जीवन सत्यान्वेषण और संयम की महासाधना का वसीयतनामा है। उन्होंने 'वीतरागी - विज्ञान' पर बल दिया। अकेला 'वीतरागी' एक दर्शन है, सिद्धांत है जो इष्ट-मंजिल को लक्ष्य करता है, उसके साथ 'विज्ञान' शब्द जुड़ा है। जहाँ विज्ञान शब्द हो वहाँ सिद्धांत के साथ प्रयोग चाहिए। सत्यान्वेषण प्रयोग की भूमिका है। जीवन का प्रकाशन स्थान प्रकाशन अवधि 'जिनभाषित' के सम्बन्ध में तथ्यविषयक घोषणा 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) मासिक मुद्रक-प्रकाशक राष्ट्रीयता पता सम्पादक पता स्वामित्व : Jain Education International : : : : महावीर स्वामी ने 'वीतराग' को चरितार्थ किया था पूरी सम्पूर्णता के साथ । बिना वीतराग हुए सर्वज्ञता को नहीं पाया जा सकता और सर्वज्ञ ही मानवता से जुड़ सकता है । अतः भगवान् महावीर मानवता के मसीहा थे। मनुष्य के सुख और दुःख के रेशे - रेशे को जानने वाले थे। उन्होंने केवल जाना ही नहीं उसको जीया भी। ऐसे लोकोत्तर पुरुष का जन्म कल्याणक इसलिए मना रहे हैं कि वे अमर हो गये हैं । भारतीय संस्कृति में लोकोत्तर पुरुष मरते नहीं है अतएव उनका जन्म दिवस कल्याणक के रूप में मनाया जाता है। जवाहर वार्ड, बीना (बीना) रतनलाल बैनाड़ा भारतीय 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ. प्र.) प्रो. रतनचन्द्र जैन ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा, भोपाल-462039 (म.प्र.) सर्वोदय जैन विद्यापीठ, 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) मैं, रतनलाल बैनाड़ा एतद् द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है । For Private & Personal Use Only रतनलाल बैनाड़ा, प्रकाशक अप्रैल 2005 जिनभाषित 7 www.jainelibrary.org
SR No.524295
Book TitleJinabhashita 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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