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________________ लोकोत्तर पुरुष : महावीर प्राचार्य निहालचन्द जैन भगवान् महावीर का 2600वां जन्म कल्याणक उन चिरागों को बुझा दो तो उजाले होंगे।' महोत्सव, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाना है सम्प्रदाय के चिरागों से उठता धुंआ, अहिंसा के आलोक वर्द्धमान महावीर की समसामयिक प्रासंगिकता को रेखांकित | को ढंके हुए है। कर रहा है। इस प्रकार यह नि:संकोच कहा जा सकता है महावीर की अहिंसा-न कोई नारा है और न ही पंथ। कि आज हिंसा, नृशंसता और मानसिक खोखलापन उस यह तो एक जीवनशैली है, वैचारिक-संघर्ष से ऊपर उठकर समय से, जब महावीर अवतरित हुए थे, 2600 गुना अधिक सहिष्णुता/सहयोग की भावना का समादर करने वाली जीवनशैली है। स्वामित्व और संग्रह की आकांक्षा से ऊपर तब भी मानवीय मूल्यों का भीषण रूप से ह्रास हो | उठकर समत्व की सरस-धारा में जीने की शैली है। वस्तु रहा था जब क्रान्ति-दृष्टा वर्द्धमान महावीर ने मानवता के | के संग्रह, सत्ता के केन्द्रीयकरण और अपरिमित-भोगाकांक्षा संरक्षण और जीव दया के अनुरक्षण के लिए एकाकी अभियान | जीवन के लिए ही नहीं, समाज के लिए अभिशाप है। अतः प्रारंभ किया था। भगवान् महावीर ने वैचारिक संघर्ष का 'अनेकान्त' के द्वारा महावीर ने अहिंसा के मूर्तिमंत लोकोत्तर-पुरुष के समाधान दिया तथा अनियंत्रित संग्रह से बचने के लिए रूप में सामाजिक परिष्कार के लिए, अपने तेजोमय दिव्य |'अपरिग्रह' का जीवन-दर्शन दिया। आलोक में न केवल मनुष्यों और देवताओं को सम्बोधा । वस्तुतः अहिंसा को एक सिक्का कहें तो उसके एक बल्कि उनकी सर्वव्यापकता तिर्यंचों, पशुओं, सिंहों, नेवलों | तल पर अनेकान्त रूपायित है तो दूसरे तल पर अपरिग्रह का जैसे हजारों जीवधारियों के लिये प्रेरणा का प्रबोध-पुञ्ज | आकार है। अहिंसा जीवन-दर्शन में अनेकान्त और अपरिग्रह बनी। समाहित हो जाते हैं। इस मृण्मय देह के दीये में, आत्मा की ज्योतिशिखा महावीर का धर्म मानवता के सम्मान और पूजा का प्रकृति रूप ब्रह्म का अप्रतिम उपहार है जिसका उद्देश्य- | धर्म है। सुख के सागर को अपनी आत्मा की इकाई में ही विराटता महावीर का धर्म जीवन की समग्रता का धर्म है। देना है। इस उद्देश्य को पाने के लिए भगवान् महावीर का असल में जो हमें पाना है वह दिशा है 'Being' यानी पुण्यश्लोक संदेश हमारी नाव है जिस पर आरूढ़ होकर हम | 'होने की', हम जो हैं, इससे बदलने की और आत्मा को संसार-सागर पर उतर कर सुख के लोक को प्राप्त कर | पाने की। लेकिन हम जो पा रहे हैं दिशा है- 'Having' सकते हैं। | यानी वस्तुओं की। 'पूजा' की सम्मोहक भाषा से महावीर खश हो पायेंगे। | हमारा अनुभव हमेशा आशा के सामने हार जाता है। वे चाहते थे कि जीवन के मंदिर में कर्म की पूजा की जाए। | अतीत का यह अनुभव हमारे पास है कि परिग्रह या वस्तएँ सम्यक्-कर्म की आराधना की जाए। सम्यक् श्रद्धा और | सुख का आधार नहीं हैं, न ही बन सकती हैं। लेकिन विवेक के साथ संयम के स्वर्ण काल में, अष्टकर्मों के | भविष्य की आशा यही होती है कि 'कुछ और मिल जाए'। विसर्जन के प्रतीक स्वरूप, द्रव्यों को सजाकर, सम्यक्- ऐसी तृष्णा का कटोरा हमेशा खाली रहता है। तृष्णा के कर्म और सम्यक्चारित्र द्वारा ही मनुष्यता को बचाया जा | कटोरे को वस्तुओं से और भोग-सामग्री से भरा नहीं जा सकता है। सकता, परन्तु उसे भरने की कोशिश निरन्तर चालू है। क्या अहिंसा' की महाज्योति किसी सम्प्रदाय-विशेष भगवान् महावीर ने अणुव्रत और महाव्रत का विधान की पंजी है? यदि नहीं तो महावीर भी पूरी मनुष्यता के लिए बताकर तृष्णा से विराम पाने की सम्भावना और समाधान समर्पित दिव्य महापुरुष माने जायेंगे। वे किसी सम्प्रदाय | का मार्ग दिखाया। विशेष के आराध्य देव कैसे बन सकते हैं? भगवान् महावीर का चिन्तन जीवन के यथार्थ से 'जिन चिरागों से तआस्सुब का धुंआ उठता है। सम्पृक्त रहा। अणुव्रत कहता है कि यदि स्वस्थ परिग्रह हो तो 6 अप्रैल 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524295
Book TitleJinabhashita 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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