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शिष्यों के हृदय को गहराई तक स्पर्श किया है। आज इस बेरोजगारी और महार्घता के समय में 'प्रौढ़ पाण्डित्य' का संरक्षण आकाशकुसुमवत् लगता है।
प्रौढपाण्डित्य के संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय आवश्क हैं, जिनपर पू. मुनिराजों, विद्वानों एवं समाज की अखिल भारतीय स्तर की संस्थाओं तथा जैन पत्रकारों को गम्भीरता से विचार करना चाहिए -
१. समाज द्वारा संस्थापित सम्प्रति जीवित संस्थाओं को गति प्रदान करना।
२. वर्तमान में स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। काफी संख्या में इस संस्था ने प्रौढ पाण्डित्य समलंकृत विद्वानों को जन्म दिया है। परन्तु वर्तमान में स्थायी प्राचार्य एवं योग्य स्थायी शिक्षकों की व्यवस्था नहीं होने से योग्य विद्वानों का जन्म होना भी असम्भव है ।
३. 'गुरु गोपालदास वरैया सिद्धांत संस्कृत महाविद्यालय मुरैना' से काफी धुरन्धर एवं योग्य विद्वान तैयार हुए हैं और वर्तमान में भी छात्र संख्या अच्छी है, परन्तु वहाँ के दिशा निर्देशकों को चाहिये कि उन छात्रों में विशेष रुचि और प्रतिभा के धनी छात्रों को अतिरिक्त विद्वानों के द्वारा तैयार करें जिससे प्रौढ़ पाण्डित्य के धनी विद्वान तैयार हों।
४. जयपुर स्थित 'श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय' बहुत ही अच्छे ढंग से चल रहा है, जिसमें संस्कृत, प्राकृत विद्या के अध्ययन करने वाले 250 छात्र हैं। ये छात्र उक्त महाविद्यालय में श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान' द्वारा संचालित महाकवि आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास सांगानेर एवं टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर द्वारा संचालित छात्रावास से अध्ययन करने आते हैं। इन संस्थाओं ने कालेज के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी भाषा का व्युत्पत्तिपरक ज्ञान कराने हेतु विशिष्ट विद्वानों को भी रखा है, जिसके कारण व्युत्पत्ति परक विद्वान भी तैयार हो रहे हैं। वर्तमान में भी यहाँ के छात्रों को ग्रन्थों की मूल पंक्ति से ज्ञान कराया जाता है, जिससे छात्रों को ग्रन्थ कण्ठस्थ एवं पंक्ति से तैयार हो ।
५. श्री महावीर दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय साढमल एवं वरुआसागर में संचालित संस्कृत विद्यालय में भी छात्रों की स्थिति सन्तोषजनक है। परन्तु यहाँ पर छात्र प्रारम्भिक कक्षाओं में अध्ययन करते हैं। वस्तुतः इन दो संस्थाओं का विशेष दायित्व बनता है कि मूल जड़ से संस्कृत भाषा का ज्ञान अल्पवय के छात्रों को कराना है। अतः समुचित ढंग से तैयार करायें।
६. आहार एवं सागर में संचालित विद्यालयों में संस्कृत परम्परा एवं सामान्य परम्परा की दोहरी शिक्षा दी जाती है। अत: छात्र को निर्णय करने में कठिनाई होती है कि वह छात्र किस परम्परा का अध्ययन करें।
उक्त विश्लेषण से इतना तय है कि अभी भी संस्कृत-प्राकृत भाषा के ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था है और कुछ विद्वान् भी तैयार हो रहे हैं। परन्तु प्रश्न है कि जो विद्वान् 'प्रौढ पाण्डित्य' परम्परा से तैयार हो रहे हैं या होगें, वे विद्वान् उस परम्परा का निर्वाह अर्थ के अभाव में कैसे करेंगे? समाज के कर्णधारों, संस्था संचालकों की सोच है कि इस बेरोजगारी के समय में तीन-चार हजार रुपये प्रतिमाह वेतन मिल जाय सो पर्याप्त है परन्तु उक्त महानुभावों को विचार करना चाहिए कि प्रौढ़ पाण्डित्य वही प्राप्त कर सकता है, जिसमें जैन संस्कृति के संरक्षण के भाव के साथ अत्यधिक प्रतिभा हो। जिसका क्षयोपशम कमजोर है, वह 'प्रौढ पाण्डित्य' प्राप्त नहीं कर सकता । अत: समाज का कर्तव्य है कि जो विद्वान 'प्रौढ पाण्डित्य' की दृष्टि से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उन्हें न्यूनतम 8000 से 13000 हजार वाला वेतन दिया जाय और समुचित आवासीय व्यवस्था। आज अधिकांश पूज्य मुनिराजों का, विद्वानों का एवं समाज का ध्यान क्रियाकाण्ड एवं अनुष्ठानों पर है, जिसके कारण परम्परागत विद्याध्ययन करने वाले छात्र अनुष्ठानों में रुचि रखते हैं क्योंकि शिक्षणकार्य की अपेक्षा अनुष्ठान कार्यों में अर्थोपलब्धि अच्छी है। इस पर हमें गम्भीरता से विचार करना होगा अन्यथा 'प्रौढ़ पाण्डित्य' देखने की बात तो दूर, सुनने को भी नहीं मिलेगा।
इस समय हमें यदि युगानुरूप चलना है तो एक ओर विशुद्ध परम्परागत विद्या का अध्ययन करनेवाले और दूसरी ओर विशुद्ध परम्परागत विद्या के साथ आधुनिक चिन्तन और अनुसन्धानात्मक दृष्टिकोण वाले दोनों परम्परा के विद्वान अपेक्षित हैं। वर्तमान युग में जीवित प्राचीन जैन शिक्षण संस्थाओं को किस प्रकार चलाया जाय और किस प्रकार का पाठ्यक्रम हो इसके लिये शिक्षण संस्थाओं के प्राचार्यों, शिक्षकों एवं संचालकों का चिन्तन-सम्मेलन पूज्य आचार्यों एवं मुनिराजों के सान्निध्य में होना चाहिए, जिससे इस दिशा में ठोस प्रगति हो सके। और 'प्रौढ़ पाण्डित्य' के संरक्षण पर भी विचार हो सके।
डॉ.शीतलचन्द्र जैन, जयपुर
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