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________________ गतांक से आगे पूजन-विधि सिद्धांताचार्य पं.हीरालाल शास्त्री जप से ध्यान का माहात्म्य कोटि-गुणित बतलाया गया | अधिकाधिक है, वहाँ उनका समय उत्तरोत्तर हीन-हीन है। है। इसका कारण यह है कि जप में कम से कम अन्तर्जल्परूप | उनके उत्तरोत्तर समय की अल्पता होने पर भी फल की महत्ता वचन-व्यापार तो रहता है, परन्तु ध्यान में तो वचन-व्यापार को | का कारण उन पाँचों की उत्तरोत्तर पूजा करने वाले व्यक्ति के भी सर्वथा रोक देना पड़ता है और ध्येय वस्तु के स्वरूप- | मन, वचन, कायकी क्रिया अधिक बहिर्मुखी एवं चंचल होती चिन्तन के प्रति ध्याता को एकाग्र चित्त हो जाना पड़ता है। मन | है। हृदय-तल-स्पर्शिता है। पूजा में उठने वाले संकल्प-विकल्पों को रोककर चित्त का एकाग्र वाले के मन, वचन, काय की क्रिया स्थिर और अन्तर्मुखी होती करना कितना कठिन है, यह ध्यान के विशिष्ट अभ्यासी जन ही | है। आगे जप, ध्यान और लय में यह स्थिरता और अन्तर्मुखता जानते हैं। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः' की | उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, यहाँ तक कि लय में वे दोनों उस उक्ति के अनुसार मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का प्रधान | चरम सीमा को पहुँच जाती हैं, जो कि छदमस्थ वीतराग के कारण माना गया है। मन पर काबू पाना अति कठिन कार्य है। | अधिक से अधिक संभव है। यही कारण है कि जप से ध्यान का माहात्म्य कोटि-गुणित | उपर्युक्त विवेचन से यद्यपि पूजा, स्तोत्रादिकी उत्तरोत्तर अधिक बतलाया गया है। महत्ता का स्पष्टीकरण भली भाँति हो जाता है, पर उसे और भी ध्यान से भी लय का माहात्म्य कोटि-गुणित अधिक सरल रूप में सर्वसाधारण लोगों को समझाने के लिए यहाँ एक बतलाया गया है। इसका कारण यह है कि ध्यान में किसी एक | उदाहरण दिया जाता है। जिस प्रकार शारीरिक सन्ताप की शांति ध्येय का चिन्तन तो चालू रहता है, और उसके कारण आत्म- | और स्वच्छता की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन स्नान आवश्यक है, परिस्पन्द होने से कर्मास्रव होता रहता है, पर लय में तो सर्व- | उसी प्रकार मानसिक सन्ताप की शांति और हृदय की स्वच्छता विकल्पातीत निर्विकल्प दशा प्रकट होती है, समताभाव जागृत | या निर्मलता की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन पूजा-पाठ आदि भी होता है और आत्मा के भीतर परम आह्लादजनित एक अनिवर्चनीय | आवश्यक जानना चाहिए। स्नान यद्यपि जल से ही किया जाता अनुभूति होती है। इस अवस्था में कर्मों का आस्रव रुककर संवर | है, तथापि उसके पाँच प्रकार हैं- (१) कुएँ से किसी पात्र-द्वारा होता है. इस कारण ध्यान से लय का माहात्म्य कोटि-गणित | पानी निकालकर, (२) बाल्टी आदि में भरे हुए पानी को लोटे अल्प प्रतीत होता है। मैं तो कहूँगा संवर और निर्जरा का प्रधान | आदि के द्वारा शरीर पर छोड़ कर, (३) नल के नीचे बैठकर, कारण होने से लय का माहात्म्य ध्यान की अपेक्षा असंख्यात- | (४) नदी, तालाब आदि में तैरकर और (५) कुंआ, बावड़ी गुणित है और यही कारण है कि परम समाधिरूप इस चिल्लय आदि के गहरे पानी में डुबकी लगाकर । पाठक स्वयं अनुभव (चेतन में लय) की दशा में प्रतिक्षण कर्मों की असंख्यातगणी | करेंगे कि कुंए से पानी निकालकर स्नान करने में श्रम अधिक निर्जरा होती है। है और शांति कम पर इसकी अपेक्षा किसी बर्तन में भरे हुए यहाँ पाठक यह बात पूछ सकते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र | पानी से लौटे द्वारा स्नान करने में शान्ति अधिक प्राप्त होगी और आदि में तो संवर का परम कारण ध्यान ही माना है, यह जप | श्रम कम होगा। इस दूसरे प्रकार के स्नान से भी तीसरे प्रकार के और लय की बला कहाँ से आई ? उन पाठकों को यह जान स्नान में श्रम और भी कम है और शांति और भी अधिक। लेना चाहिए कि शुभ ध्यान के जो धर्म और शुक्लरूप दो भेद | इसका कारण यह है कि लौटे से पानी भरने और शरीर पर किये गये हैं, उनमें से धर्मध्यान के भी अध्यात्म दृष्टि से पिण्डस्थ, डालने के मध्य में अन्तर आ जाने से शान्ति का बीच-बीच में पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार भेद किये गये हैं। इसमें से अभाव भी अनुभव होता था, पर नल से अजस्त्र जलधारा शरीर आदि के दो भेदों की जप संज्ञा और अन्तिम दो भेदों की ध्यान | पर पड़ने के कारण स्नान-जनित शान्ति का लगातार अनुभव संज्ञा महर्षियों ने दी है। तथा शुक्ल ध्यान को परम समाधिरूप होता है। इस तीसरे प्रकार के स्नान से भी अधिक शान्ति का 'लय' नाम से व्यवहृत किया गया है। ज्ञानार्णव आदि योग- | अनुभव चौथे प्रकार के स्नान से प्राप्त होता है, इसका तैरकर विषयक शास्त्रों में पर-समय-वर्णित योग के अष्टांगों का वर्णन | स्नान करनेवाले सभी अनुभवियों को पता है। पर तैरकर स्नान स्याद्वाद के सुमधुर समन्वय के द्वारा इसी रूप में किया गया है। करने में भी शरीर का कुछ न कुछ भाग जल से बाहर रहने के उपर्युक्त पूजा स्तोलादिका जहाँ फल उत्तरोत्तर । कारण स्नान-जनित शान्ति का पूरा-पूरा अनुभव नहीं हो पाता। 8 अप्रैल 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524295
Book TitleJinabhashita 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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