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________________ कामभावों पर नियंत्रण रखना, उनके साथ नहीं बहना, | किन्तु हे प्रभु! तुम जैसे महान् पुत्र को जन्म देने वाली माता वैराग्यभावों से चित स्थिर रखना योग्य है। इसी से अपने | एक ही है। ताराओं को उदित करने वाली तो सभी दिशायें कर्तव्य कर्म और धर्म-मार्ग की सिद्धि होती है तथ संवरपूर्वक | हैं, किन्तु तेजस्वी सूर्य को उत्पन्न करने वाली एक पूर्व दिशा कर्मनिर्जरा होती है। यही यथार्थ स्त्री-परीषह (जय) है। ही है। इसमें तीर्थकरमाता की श्रेष्ठता व्यक्त की गयी है। प्रश्न - जय सीताराम. जय राधेश्याम. उमाशंकर. | उत्तर- इसमें पुरुषों से स्त्रियों की श्रेष्ठता व्यक्त नहीं गोपीकृष्ण में स्त्रीनाम को पहले दिया गया है और उसकी | की गयी है किन्तु स्त्रियों में तीर्थकर माता की विशिष्टता जय बोली गई है अत: वह शब्द पुरुष की अपेक्षा स्त्री की | व्यक्त की है। अन्य स्त्रियों के तो अनेक पुत्र-पुत्रियाँ होती हैं श्रेष्ठता का द्योतक है। किन्तु तीर्थकर अपनी माता के अकेले एक ही होते हैं। यहाँ उत्तर- यहाँ न तो स्त्री की जय कही गयी है और न | श्रेष्ठता और तेजस्विता प्रभु की बतायी है। कवि ने यह स्तोत्र स्त्री नाम को श्रेष्ठता के कारण पहिले दिया गया है। बात कुछ आदिनाथ प्रभु का बनाया है और उन्हीं का इसमें गणगान दूसरी ही है। उसका रहस्य इस प्रकार है: जैसे जय सीताराम | किया है, उनकी माता का नहीं। माता को तो प्रशंस्य मातृत्व में सीता के पति राम की ही जय बोली गयी है। यहाँ सीता | भी प्रभु के अवतार लेने के बाद ही मिला है, पहले नही। शब्द राम का विशेषण है, अलग स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं है। यह सब प्ररूपण किसी निंदा की दृष्टि से नहीं है। राम अनेक हुए हैं - बलराम, परशुराम, जयराम उन सबसे | किन्तु 'याथातथ्यं विना च विपरीतात्' (बिना किसी विपरीतता अलग बताने के लिए सीताराम शब्द का प्रयोग किया गया | के वास्तविक है)। इस विषय में कभी कोई मुमुक्ष किसी है। अर्थात् सीता के वर = पति राम ही यहाँ इष्ट हैं। इसी से | भ्रम-भुलावे और चक्कर में न आ जाये, ऐसी सावधानी की रामलीला में "सियावर रामचन्द्र की जय" बोलते हैं। सीता | दृष्टि से उसे आगाह किया है। वैसे मुमुक्षु या भव्य परिणामी और राम के बीच में वर या पति शब्द छिपा हआ है। यह | को दूसरों की गलती ढूँढने के बजाय स्वयं को सचेत रहने एक ही पुरुष = राम का वाचक है, सीता और राम ऐसे दो | की सख्त जरूरत है, तभी वह कल्याण मार्ग पर अग्रसर हो का वाचक नहीं। इसी से एकवचन में ही यह सदा प्रयुक्त | सकता है। यही सही और स्वाधीन तरीका है। होता है। अगर दो का होता जो द्विवचन में होता। यह नाम जे प्रधान के हरि को पकड़े, सदा एक पुरुष का ही रहता है कभी किसी स्त्री का नहीं। पन्नग पकड़ पान से चावै । इसी प्रकार राधेश्याम, उमाशंकर, गोपीकृष्ण नामों को समझना जिनकी तनक देख भौं बाँकी, चाहिए। कोटिन सूर दीनता जापैं । इसी तरह उमापति, लक्ष्मीकांत, त्रिशलात्मज, ऐसे पुरुष पहाड़ उड़ावन, देवकीनंदन आदि हैं। इसमें भी पहिले स्त्रीनाम होते हुए भी प्रलय पवन त्रिय वेद पयापै । वह उनका कतई वाची नहीं है। उनका वाची तो एक पुरुष धन्य- धन्य ते साधु साह सी, ही है और वही इष्ट है। मन सुमेरु जिनका नहिं कांपै॥ प्रश्न - "स्त्रीणां शतानि" (भक्तामरस्तोत्र २२) में वात्सल्य रत्नाकर (तृतीय खण्ड) से साभार. बताया है कि सैकड़ों पुत्रों को सैकड़ों स्त्रियाँ जन्म देती हैं, समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्ट कंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो॥ श्रमण वह है जो जिनलिंग धारण करते हुए शत्रु और मित्र, सुख और दुःख, प्रशंसा और निन्दा, मिट्टी और स्वर्ण तथा जीवन और मरण में समभाव रखता है। प्रवचनसार ३/४१ 12 अप्रैल 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524295
Book TitleJinabhashita 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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