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________________ रखते तो ज्यादा व्यापक और निर्दोष रहता। स्त्री-निंदा की | एक मास तक जननाशौच से ग्रस्त हो जाती है। ऐसा पुरुषों में संभावना भी नहीं रहती । नहीं। इसी से स्त्री-पर्याय में अशुद्धता और निंद्यता दोनों समाधान- शास्त्रों के सब कथन प्रायः मनुष्यों को ही | मानी गयी हैं। सूत्रपाहुड़ गाथा २५ में "इत्थीसु ण पव्वया लक्ष्यकर किये गये हैं। उदाहरण के लिए सात व्यसनों को | भणिया" स्त्रियों के प्रव्रज्या-दीक्षा का स्पष्ट निषेध किया लीजिए। इनमें परस्त्री-रमण और वेश्या-सेवन ये अलग- | गया है। भावसंग्रह में लिखा है : अलग बताये हैं । स्त्रियों की दृष्टि से 'परस्त्रीरमण' की जगह | स्वभावः कुत्सितस्तासां लिंगं चात्यन्तकुत्सितम्। पर पुरुषरमण व्यसन बन भी जायेगा, किन्तु वेश्यासेवन की तस्मान्न प्राप्यते साक्षात् द्वेधा संयम-भावना ॥ २४६ ।। जगह उनकी दृष्टि से क्या बनेगा? इसका कोई उत्तर नहीं, - - स्त्रियों का स्वभाव एवं पर्याय अशुद्ध है अतः क्योंकि वेश्या का कोई पुल्लिंग रूप नहीं। ऐसी हालत में | उनके द्रव्य और भाव संयम अथवा इन्द्रिय और प्राणीक्या स्त्रियों के छह ही व्यसन होंगे? संयम दोनों नहीं होते। इसी से दि. आम्नाय में स्त्री के छठा वैसे 'स्त्री' शब्द काम का ही प्रतीक है, जैसे सूर्य | गुणस्थान और मोक्ष (पंचपरमेष्ठित्व) नहीं माना। यही नहीं, दिन का और चन्द्रमा रात्रि का प्रतीक है। इसको न समझने से | उसके क्षायिक सम्यक्त्व, उत्तम संहनन, त्रेसठ शलाका पद, ही विसंवाद होते हैं। जैसे भाव को छोड़कर शब्दों का आग्रह | निःशंक ध्यान, नव ग्रेवेयकादिगमन, चारणादि ऋद्धियाँ, करने वाले "संसार में बिषबेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा" | आचार्यपट्ट, यज्ञोपवीतादि संस्कार, द्वादशांग (चौदह पूर्व) में नारी को विषबेल लिखने पर विसंवाद खड़ा करते हैं, का ज्ञान, सर्वावधि और मनः पर्ययज्ञान आदि नहीं होते। किन्तु यहाँ भी नारी शब्द काम के एवज में ही प्रयुक्त समझना | सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्री-पर्याय में जन्म नहीं लेता। इसमें की चाहिए। बहुत-सी बातें श्वेताम्बर भी मानते हैं। कुछ आधुनिकाओं ने खीझ कर इसकी जगह ऐसा साधना की दृष्टि से आचार्यों ने ही (निंद्य) कामभाव बना दिया है- "संसार में विष बेल मानव, तजि गयी | को स्त्रीपर्याय का प्रतीक माना है। इससे स्त्रियों के साथ जोगीश्वरी" किन्तु इससे दि. आम्नाय का ही एक तरह से | अन्याय अर्थात् ज्यादती और पुरुषों पर कृपादृष्टि की आशंका खात्मा हो गया है। यह उन विदुषियों के ध्यान में नहीं आया | करना व्यर्थ है। आचार्यों ने जो जैसा है, वैसा ही चित्रित दिखता, क्योंकि दिगम्बर आम्नाय में स्त्री की मक्ति नहीं किया है, कोई पक्षपात नहीं किया है। इस पर भी कोई मानी, पुरुष की ही मानी है जबकि ऐसा करने से स्त्री की नाराज हो, तो इसका वो क्या करें। श्वेतांबर सम्प्रदाय स्त्री मुक्ति का सिद्धांत 'जोगीश्वरी' रूप में स्थापित हो जाता है | की मुक्ति मानता है, फिर भी उनके यहाँ भी स्त्री को ही और पुरुष के लिए मोक्ष का निषेध "विषबेल" रूप में | काम का प्रतीक माना है, पुरुष को नहीं। श्वेतांबरों के यहाँ निर्दिष्ट हो जाता है। इस तरह समानाधिकार के चक्कर में | भी स्त्रीपरीषह नाम ही है, कामपरीषह या पुरुषपरीषह नाम दिगम्बर सिद्धान्तों को ही उलट कर स्त्रियों के एकाधिकार नहीं। की उल्टी गंगा बहायी गयी है। सही बात और सही भाव न स्त्री-परीषह का मतलब है स्त्री-विषयक बाधा अर्थात् समझने से ऐसे ही अनर्थ होते हैं। स्त्री के माध्यम से होने वाले कुत्सित विचार। मोक्षपथ के प्रश्न - स्त्री को ही काम का प्रतीक क्यों बताया | साधक के लिए इसमें क्षुधादि की तरह स्त्री को एक बाधा गया? पुरुष को क्यों नहीं? रूप में माना हैं। उत्तर- स्त्रीपर्याय को ही शास्त्रों में निन्द्य पर्याय माना | शास्त्रों में स्त्रियाँ ४ प्रकार की बतायी हैं। चेतन- १. है, पुरुषपर्याय को नहीं। प्रकृति से भी ऐसा ही है । स्त्री | देवी, २. मनुष्यनी, ३. तिर्यचनी और ४. अचेतन। काष्ठस्वभाव से ही अबला है। उसके साथ बलात्कार संभव है, | शिलादि में उत्कीर्ण, कागज आदि पर चित्रित, मूर्तिरूप और पुरुष के साथ नहीं । स्त्री के प्रतिमास रजस्राव होता है। वर्णनात्मक शब्द-मूर्तिमय। इनके माध्यम से राग या कामउसके गुयांगों में लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की उत्पत्ति होती | भाव होने पर उन्हें सहना स्त्री-परीषह-जय है। यह सब १८ रहती है। नवमास तक गर्भभार धारण करती है, इसके बाद | हजार शील के भेदों में आता है। •अप्रैल 2005 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524295
Book TitleJinabhashita 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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