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________________ काल- मापन काल की गणना या मापन करने की विधि कालमापन कहलाती है । इसका मूल हेतु मुख्यतः घटित हो चुकी तथा घटने वाली घटनाओं का क्रम कहना है । इतिहास मतलब " इति इह आसीत् " - यहाँ ऐसा हुआ, ऐसा निरूपण को इतिहास कहते हैं। ( महापुरुष 9/ 25) इतिहास प्राचीन परम्परागत तथा ऐतिहासिक प्रमाण होने से इसका श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव हो जाता है। (राजवार्तिक 9/20/95/78/19). अंग्रेजी में क्रॉनॉलॉजी (Chronology) या Era (इरा ) कहते हैं । जैन संस्कृति का इतिहास प्राप्त करने, परिचय पाने के लिए हमें जैन साहित्य व उनके रचयिताओं के काल आदि का अनुशीलन करना चाहिए। लेकिन यह कार्य कठिन हो जाता है, क्यूंकि ख्याति - लाभ की भावनाओं से अतीत वीतरागीजन अपनी साहित्यकृतियों में प्रायः अपने नाम, गाँव और काल का परिचय नहीं दिया करते। फिर भी उनकी कथन शैली, अन्य ग्रंथों में उनके उल्लेख, उनकी रचनाओं में ग्रहण किये गये अन्य शास्त्रों के उदाहरणों से, अपने गुरुजनों के स्मरणार्थ लिखी प्रशस्तियों से, आगम में उपलब्ध पट्टावलिओं से, भूगर्भ से प्राप्त शिलालेखों से या आयाग पट्टों से हम इन ग्रंथों के रचयिताओं का इतिहास मालूम कर सकते हैं। ऐसे अभ्यास में शास्त्रों का, राजाओं का, आचार्यों का ठीक-ठीक कालनिर्णय करना बहुत जरूरी होता है। इसलिए विविध कालगणनाएं जो हैं, उनकी जानकारी तथा इनका आपसी तालमेल हमें मालूम होना अनिवार्य है। कालगणना की पद्धतियाँ विभिन्न देश-प्रदेशों में भिन्नभिन्न प्रकार की दिखाई देती हैं। पूरे विश्व में अनेक प्रकार की ऐतिहासिक कालमापन पद्धतियाँ हैं जैसे चिनी, राजीप्शयन, बाँबेलोनिया और ऑसेरिया, न्यू, ग्रीक, रोमन, मध्य अमेरिकी, क्रिश्चन और भारतीय । (मराठी विश्वकोश, खंड 3 रा ) अलग-अलग कालगणनाएँ भारत में क्यों ? 1. भारत में कालगणना सूर्य, चंद्र या तारे-नक्षत्रों से की जाती हैं। इसलिए वर्ष चांद्र या सौर वर्ष की कल्पना की गई। 27 नक्षत्रों से, 12 राशियों से भी अनुमान लगाया जाता था। Jain Education International डॉ. अभय खुशालचंद दगड़े, M.B.B.S. 2. ऐतिहासिक काल में आवागमन की सुविधाएँ नहीं थी। इसलिए संपूर्ण भारत वर्ष का फैलाव कहाँ तक और कैसे है, यह सिर्फ विद्वानों के ही समझ में आता था । पराक्रमी राजाओं का साम्राज्य जल्द आवागमन साधनों के अभाव में ज्यादा काल तक नहीं टिकता था । अतः छोटेछोटे राज्य बनना स्वाभाविक था । ऐसे अलग-अलग प्रदेशों में भिन्न-भिन्न व्यवहार-आचार रहता था। ऐसी परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न कालगणनाएँ उत्पन्न होना स्वाभाविक था और हुआ भी वैसे ही । 3. भारत में विविध कालक्षेत्र में अलग-अलग आक्रमण हुए। अनेक परदेसी संस्कृति के लोग यहाँ आए । यहाँ ही बस्ती कर रहने लगे। उन्होंने जो कुछ अपने साथ आचार विचार, उच्चार, भाषाएँ इत्यादि लाए, उनमें कालगणनाएँ भी थी। जैसे ही उन्होंने यहाँ अपना राज्य, अधिकार स्थापित किया, उनकी कालगणनाएँ भी प्रचार में आ गई। 4. भारत के ऐतिहासिक काल में जो अत्यंत पराक्रमी राजा हो गये, उन्होंने अपने नाम से कालगणनाएँ शुरू की। विक्रमादित्य तथा शालिवाहन इन महान पराक्रमी राजाओं ने अपनी कालगणनाएँ शुरू की थी। उनके देखा देखी " हम भी पराक्रमी अगर हैं, तो क्यों ना हम भी अपनी कालगणना शुरू करें" ऐसा सोचकर कुछ राजाओं ने अपनी स्वतंत्र कालगणनाएँ शुरू की। चालुक्य, छठाँ विक्रमादित्य, अकबर, टीपू सुल्तान, शिवाजी ऐसे ही पराक्रमी राजाओं में से थे। सारांश, भारत में गत 2500 वर्षों में करीबन पच्चीस तीस कालगणनाएँ उत्पन्न हुईं या चालू की गईं। इनमें से कुछ शुद्ध भारतीय, कुछ परकीय, कुछ मिश्र स्वरूप की थी। किन्हीं का प्रारंभ क्यों हुआ, समझ में आता है, किन्हीं का नहीं। ऐसी विविध कालगणनाओं में वर्ष कैसे पकड़े गये हैं, उनका चालू नाम वर्षों से तालमेल रखता है या नहीं, वर्ष चांद्र, सौर या चांद्रसौर है, महीना चंद्र या सूर्य से संबंधित है, चाँद अगर है तो वह अमान्त ( अमावस्या से) या पूर्णिमान्त है, महीनों के दिन अंदाज से हैं, या हक प्रत्ययों से, दिनों के नाम किस प्रकार से हैं, तारीख तथा वार सूर्योदय से जुड़े हैं या चंद्रोदय / सूर्यास्त से, ऐसे अनेक विकल्प इसमें हैं 1 For Private & Personal Use Only जनवरी 2005 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org
SR No.524293
Book TitleJinabhashita 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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