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________________ अर्हन्नतनुमध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात्। सर्वसाधारण में नाना प्रकार के सन्देह भी उत्पन्न होंगे। श्रुतगी: साधुस्तदनु च पुरोऽपि दृगवगवृत्ताति॥ (श्रा.सं. भाग 1 पृष्ठ 464 गाथा 385) (448) यद्यपि आचार्य वसुनन्दिका अतदाकार स्थापना न करने भूर्जे, फल के सिचये शिलातले सैकते क्षितौ व्योम्नि। के विषय में तर्क या दलील है तो युक्ति-संगत, पर हृदये चेति स्थाप्याः समयसमाचारवेदिभिर्नित्यम्॥ हुंडावसर्पिणी का उल्लेख किस आधार पर कर दिया, यह (449) कुछ समझ में नहीं आया? खासकर उस दशा में, जब कि (देखो श्रा.सं. भाग 1 पृष्ठ 173) उनके पूर्ववर्ती आचार्य सोमदेव बहुत विस्तार के साथ अर्थात् - भूर्जपत्र आदि पवित्र बाह्य वस्तु में या हृदय उसका प्रतिपादन कर रहे हैं। फिर एक बात और विचारणीय के मध्य भाग में अर्हन्त को, उसके दक्षिण भाग में गणधर है कि क्या पंचम काल का ही नाम हुंडावसर्पिणी है, या को, पश्चिम भाग में जिनवाणी को, उत्तर में साधु को और प्रारंभ के चार कालों का नाम भी है। यदि उनका भी नाम पूर्व में रत्नत्रय रूप धर्म को स्थापित करना चाहिए। यह है, तो क्या चतुर्थकाल में भी अतदाकार स्थापना नहीं की रचना इस प्रकार होगी - जाती थी? यह एक प्रश्न है, जिस पर कि विद्वानों द्वारा रत्नत्रयधर्म विचार किया जाना आवश्यक है। साधु अर्हन्तदेव गणधर उमास्वामिश्रावकाचार, धर्मसंग्रह श्रावकाचार और जिनवाणी लाटीसंहिता में पूजन के पाँच उपचार बतलाए हैं- आवाहन, इसके पश्चात् भावात्मक अष्टद्रव्य के द्वारा क्रमशः स्थापन, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन। इन तीनों ही देव, शास्र, गुरु और रत्नत्रय धर्म का पूजन करे। तथा श्रावकाचारों में स्थापना के तदाकार और अतदाकार भेद न दर्शनभक्ति, ज्ञानभक्ति, चारित्रभक्ति, पंचगुरुभक्ति, सिद्धभक्ति, करके सामान्य रूप से पूजन के उक्त पाँच प्रकार बतलाये आचार्यभक्ति और शान्तिभक्ति करे। आचार्य सोमदेव ने हैं। फिर भी जब सोमदेव-प्ररूपित उक्त छह प्रकारों को इन भक्तियों के स्वतंत्र पाठ दिये हैं। शान्तिभक्ति का पाठ सामने रखकर इन पाँच प्रकारों पर गम्भीरता से विचार इस प्रकार है - करते हैं, तब सहज में ही यह निष्कर्ष निकलता है कि ये भवदुःखानलशान्तिधर्मामृतवर्षजनितजनशान्तिः। पाँचों उपचार अतदाकार स्थापना वाले पूजन के हैं, क्योंकि शिवशर्मास्त्रवशान्तिः शान्तिकरः स्ताजिनःशान्तिः॥ अतदाकार या असद्भावस्थाना में जिनेन्द्र के आकार से (481, श्रा.सं.-भाग 1, पृष्ठ 178) रहित ऐसे अक्षत- पुष्पादि में जो स्थापना की जाती है, उसे यह पाठ वर्तमान में प्रचलित शान्तिपाठ की याद दिला अतदाकार या असद्भाव स्थापना कहते हैं। अक्षत-पुष्पादि रहा है। में जिनेन्द्रदेव का संकल्प करके 'हे जिनेन्द्र, अत्र अवतर, उपर्युक्त तदाकार और अतदाकार पूजन के निरूपण का अवतर' उच्चारण करके आह्वानन करना, 'अत्र तिष्ठ तिष्ठ' गंभीरतापूर्वक मनन करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि बोलकर स्थापन करना और 'अत्र मम सान्निहितो भव' वर्तमान में दोनों प्रकार की पूजन-पद्धतियों की खिचड़ी कहकर सन्निधिकरण करना आवश्यक है। तदनन्तर जलादि पक रही है, और लोग यथार्थ मार्ग को बिलकुल भूल गये द्रव्यों से पूजन करना चौथा उपचार है। पुनः जिन अक्षत पुष्पादि में जिनेन्द्रदेव की संकल्पपूर्वक स्थापना की गई है निष्कर्ष- तदाकार पूजन द्रव्यात्मक और अतदाकार उन अक्षत-पुष्पादि का अविनय न हो, अतः संकल्प से ही पूजन भावात्मक है। गृहस्थ सुविधानुसार दोनों कर सकता विसर्जन करना भी आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार है। पर आचार्य वसुनन्दि और गुणभूषण इस अतदाकार स्थापना में यह पञ्च उपचार सुघटित एवं सुसंगत हंडावसर्पिणीकाल में अतदाकार स्थापना का निषेध करते हो जाते हैं इस कथन की पुष्टि प्रतिष्ठा दीपक के निम्नहैं। वे कहते हैं कि लोग यों ही कुलिंगियों के यद्वा-तद्वा | लिखित श्लोकों से होती हैउपदेश से मोहित हो रहे हैं, फिर यदि ऐसी दशा में साकारा च निराकारा स्थापना द्विविधा मता। अर्हन्मतानुयायी भी जिस किसी वस्तु में अपने इष्ट देव की अक्षतादिनिराकारा साकारा प्रतिमादिषु॥1॥ स्थापना कर उसकी पूजा करने लगेंगे, तो साधारण लोगों आह्वानं प्रतिष्ठानं सन्निधीकरणं तथा। से विवेकी लोगों में कोई भेद न रह सकेगा। तखा पूजा विसर्जनं चेति निराकारे भवेदिति ॥2॥ 8 जनवरी 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524293
Book TitleJinabhashita 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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