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________________ पूजन विधि सिद्धान्ताचार्य पं. हीरालाल जी शास्त्री पूजन का अर्थ और भेद प्रार्थना करना कि हे! देव, सदा तेरे चरणों में मेरी भक्ति जिनेन्द्रदेव, गुरु, शास्त्र, रत्नत्रय धर्म आदि की आराधना, बनी रहे, सर्वप्राणियों पर मैत्री भाव रहे, शास्त्रों का अभ्यास उपासना या अर्चा करने को पूजन कहते हैं। आचार्य वसुनन्दि हो, गुणी जनों में प्रमोद भाव हो, परोपकार में मनोवृत्ति ने पूजन के छह भेद गिनाकर उसका विस्तृत विवेचन रहे, समाधिमरण हो, मेरे कर्मों का क्षय और दु:खों का किया है। (देखो, श्रावकाचार संग्रह भाग 1 पृष्ठ 464- | अन्त हो, इत्यादि प्रकार से इष्ट प्रार्थना करने को पूजा फल 476, गाथा 381 से 493 तक)। छह भेदों में एक स्थापना कहा गया है। (देखो, श्रा.सं. भाग 1 पृष्ठ 180 आदि, पूजा भी है। साक्षात् जिनेन्द्रदेव या आचार्यादि गुरुजनों के श्लोक 496 आदि) अभाव में उनकी स्थापना करके जो पूजा की जाती है उसे पूजा फल के रूप में दिये गये निम्न श्लोकों से एक स्थापना पूजा कहते हैं। यह स्थापना दो प्रकार से की जाती | और भी तथ्य पर प्रकाश पड़ता है। वह श्लोक इस प्रकार है, तदाकार रूप से और अतदाकार रूप से। जिनेन्द्र का जैसा शान्त वीतराग स्वरूप परमागम में बताया गया है, प्रातर्विधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन, तदनुसार पाषाण, धातु आदि को मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा मध्याह्नसन्निधिरयं मुनिमाननेन। विधि से उसमें अर्हन्तदेव की कल्पना करने को तदाकार सायंतनोऽपि समयो मम देव, स्थापना कहते हैं। इस प्रकार से स्थापित मूर्ति को लक्ष्य यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन॥ करके, या केन्द्र-बिन्दु बनाकर जो पूजा की जाती है, उसे (श्रा.सं. भाग 1 पृष्ठ 185 श्लोक 529) तदाकार स्थापना पूजन कहते हैं? इस प्रकार के पूजन के अर्थात् - हे देव, मेरा प्रात:काल तेरे चरणों की पूजा लिए आचार्च सोमदेव ने प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, से, मध्याह्नकाल मुनिजनों के सन्मान से और सायंकाल तेरे सन्निधापन, पूजा और पूजा-फल इन छह कर्तव्यों का आचरण के संकीर्तन से नित्य व्यतीत हो। करना आवश्यक बताया है? यथा पूजा-फल के रूप में दिये गये इस श्लोक से यह भी प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम्। ध्वनि निकलती है कि प्रात:काल अष्ट द्रव्यों से पूजन पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम्॥ करना पौर्वाह्विक पूजा है, मध्याह्नकाल में मुनिजनों को (श्रावकाचार संग्रह भाग 1 पृष्ठ 180 श्लोक 495) आहार आदि देना माध्याह्विक पूजा है और सायंकाल के पूजन के समय जिनेन्द्र-प्रतिमा के अभिषेक की तैयारी | समय भगवद-गण कीर्तन करना अपराहिक पजा है। इस करने को प्रस्तावना कहते हैं। जिस स्थान पर अर्हद्विम्ब | विधि से त्रिकाल पजा करना श्रावक का परम कर्तव्य है को स्थापित कर अभिषेक करना है, उस स्थान की शुद्धि | और सहज साध्य है। करके जलादिक से भरे हुए कलशों को चारों ओर कोणों । उक्त विवेचन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि आह्वानन, में स्थापना करना पुराकर्म कहलाता है। इन कलशों के | स्थापन और सन्निधीकरण का आर्षमार्ग यह था, पर उस मध्यवती स्थान में रखे हुए सिंहासन पर जिनबिम्ब के | मार्ग के भूल जाने से लोग आजकल यद्वा तद्वा प्रवृत्ति स्थापन करने को स्थापना कहते हैं। ये वही जिनेन्द्र हैं, करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं। यह वही सिंहासन है, यह वही साक्षात् क्षीरसागर का जल | तदाकार स्थापना के अभाव में अतदाकार स्थापना कलशों में भरा हुआ है, और में साक्षात् इन्द्र बनकर भगवान् | की जाती है। अतदाकार स्थापना में प्रस्तावना, पराकर्म का अभिषेक कर रहा हूँ, इस प्रकार की कल्पना करके आदि नहीं किये जाते, क्योंकि जब प्रतिमा ही नहीं है, तो प्रतिमा के समीपस्थ होने को सन्निधापन कहते हैं। अभिषेक आदि किसका किया जायगा? अतः पवित्र पुष्प, अर्हत्प्रतिमा की आरती उतारना, जलादिक से अभिषेक पल्लव, फलक, भूर्जपत्र, सिकता, शिलातल, क्षिति, व्योम करना, अष्टद्रव्य से अर्चा करना, स्त्रोत पढ़ना, चँवर ढोरना या हृदय में अर्हन्तदेव की अतदाकार स्थापना करनी चाहिए। गीत, नृत्य आदि से भगवद्भक्ति करना यह पूजा नाम का वह अतदाकार स्थापना किस प्रकार करनी चाहिए, इसका पाँचवों कर्तव्य है। जिनेन्द्र-बिम्ब के पास स्थित होकर इष्ट | वर्णन आचार्य सोमदेव ने इस प्रकार किया है - - जनवरी 2005 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524293
Book TitleJinabhashita 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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