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________________ सम्पादकीय क्षमावाणी पर्व बनाम विश्वमैत्री मनुष्य सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी है क्योंकि उसमें ही विवेक सम्मत जीवन जीने की शक्ति है, जिसका उपयोग करके वह पतित से पावन एवं नर से नारायण बन जाता है। संसार के घटते घटनाचक्रों के बीच भी मनुष्य अपना सन्तुलन बनाये रखता है और प्रगति की धुरी को नवजीवन प्रवाह के पहियों से आबद्ध किये रहता है, फिर भी ज्ञात-अज्ञात कारणों से कुछ भूलें सहज ही उससे हो जाती हैं जिनका निदान वह स्व-आलोचना,प्रायश्चित और क्षमायाचना या क्षमाभाव के माध्यम से करता है। हमारी आत्मा हमें सतत् प्रेरणा देती है कि भूल हो जाने पर भी क्या वही भूल करोगे? भूल होना सहज है और इनसानी स्वभाव भी, किन्तु जानबूझकर भूल करना और भूल पर भूल करना तो नादानी है। वास्तव में जिस क्षण हमें अपनी भूल मालूम हुई यदि उसी क्षण हम उसे भूल मानकर भूलने, भुलाने और कभी न दोहराने का संकल्प लेते हैं तो यह हमारा पुनर्जन्म ही है। यदि भूल करना मनुष्य का स्वभाव है, तो भल को मान लेना उसकी मनुष्यता है और जिसके प्रति भूल हुई है या जिसे हमारी भूल से नुकसान हुआ है, उसके मन में आयी विकृति का निवारण कर देना पुरुषार्थ है और यह पुरुषार्थ बिना क्षमायाचना एवं क्षमाभाव धारण किये संभव नहीं है। प्रसिद्ध नीतिकाव्य 'तिरुक्कुरल' कहता है कि - 'दूसरे लोग तुम्हें हानि पहुँचायें, उसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर दो और यदि उस उपकार को भूल सको तो और भी अच्छा है।' उपवासादि तपश्चरण के द्वारा शरीर को कृश करने वाले तपस्वी महान होते हैं, किन्तु उनका स्थान उन क्षमाशील सज्जनों के पश्चात् ही है जो अपनी निन्दा करने वालों को क्षमा कर देते हैं। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि नीच बन जाता है इन्सां सजाएं देकर। जीतना चाहिए दुश्मन को दुआएं देकर। दिगम्बर जैन समाज में दशलक्षण पर्व के उपरान्त आश्विन कृष्ण-1 को क्षमावाणी पर्व मनाने तथा श्वेताम्बरों में पर्युषण पर्व के उपरान्त सांवत्सरी मनाने की परम्परा है, जिसे हम विश्व क्षमापना दिवस भी कहते हैं। इस दिन सभी नर-नारी वर्ष भर में की हुई भूलों के प्रति मन-वचन-काय से क्षमायाचना करते हैं। अपने मन की कलुषता को धोते हैं, अहिंसा तथा सहअस्तित्व की भावना को पुष्ट करते हैं। इस क्षमाभाव से प्राणीमात्र के जीवन की 'गारन्टी' मिल जाती है। आज समाज को उसके मूलभाव 'सहकार' की ओर वापिस आने की आवश्यकता है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' के स्वर के साथ बाजारवाद ने भले ही वसुधा को सिकोड़ दिया हो, किन्तु कुटुम्ब की कास अभी नहीं हो पाया है। यद्यपि परिवार, पर्यावरण, स्वास्थ्य और अस्तित्व की चिंताएँ समान हैं, किन्तु स्वार्थ के वशीभूत होकर हम अपनी-अपनी का राग अलापते हैं। अमेरिका विश्वशक्ति है, तो उसके लिए अपने हितों की चिन्ता सर्वोपरि है, किन्तु दूसरे देशों की चिन्ता उसके लिए मात्र अपने हितपूर्ति तक ही संभव हो पाती है। आतंकवाद आज अमैत्री भावना का पर्याय है जिसका लक्ष्य है स्वयं के लिए दूसरों को मारो। वे सहअस्तित्व की भावना के तो हत्यारे हैं ही, दूसरों का अस्तित्व मिटाने पर ही तुले हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह जैसे पाप उनके लिए ग्राह्य हैं। वे स्वयं की सदभावनाओं के तो हत्यारे हैं ही, दसरों को मारने के लिए, स्वयं को मारने ( मानव बम बनने) तक के लिए भी तत्पर हो जाते हैं। उनकी हिंसा एवं प्रति हिंसा की भावना एवं दुष्कृत्य निन्दनीय हैं, जो दण्ड की मांग करते हैं, किन्तु जब वे ही शान्ति के स्वरों को बोलने लगते हैं, तो अनेक देश/शासनाध्यक्ष/सरकारें उन्हें भी क्षमाकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ने के सुअवसर प्रदान करती हैं। वास्तव में संघर्ष का हल शान्तिमय संवाद ही है जिसके कारण व्यक्ति आत्मसुधार करता है। क्यों न हम भी अपनी भूलों का चिन्तन करें और यह संकल्प करें कि हम ऐसा कोई कार्य या विचार नहीं करेंगे जिसमें क्षमा एवं शान्ति का संसार दुःख के सागर में डूबे। हमारी भावना हो कि खम्मामि सव्व जीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूएस वैरं मझंण केण वि॥ सितम्बर 2004 जिनभाषित 3 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524289
Book TitleJinabhashita 2004 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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