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________________ साध्वाचाराणं साध्यवाचारैः कृतसम्बन्धानामार्य | नहीं हो सकतीं अथवा लौकिक साधनों, लौकिक ज्ञानों से जिनका ठीक बोध नहीं होता और इसलिए अपने ज्ञान का विषय न होने अथवा अपनी समझ में ठीक न बैठने के कारण ही किसी वस्तु तत्त्व के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रत्ययाभिधानव्यवहार - निबन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रम् । तत्रोत्पत्तिहेतुकमप्युच्चैर्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति विरोधात् । तद्वीपरीतं नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे एव प्रकृती भवतः । " उच्चगोत्र निष्फल नहीं है; क्योंकि उन पुरुषों की सन्तान उच्चगोत्र होती है जो दीक्षा योग्य साधुआचारों से युक्त हों, साधु आचार-वालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध किया हो तथा आर्याभिमत नामक व्यवहारों से जो बँधे हों। ऐसे पुरुषों के यहाँ उत्पत्ति का, उनकी सन्तान बनने का, जो कारण है, वह भी उच्चगोत्र है । गोत्र के इस स्वरूप कथन में पूर्वोक्त दोषों की संभावना नहीं है। क्योंकि इस स्वरूप के साथ उन दोषों का विरोध है, उच्चगोत्र का ऐसा स्वरूप अथवा ऐसे पुरुषों की सन्तान में उच्चगोत्र मान लेने पर पूर्व पक्ष में उद्भूत किये हुए दोष नहीं बन सकते। उच्चगोत्र के विपरीत नीचगोत्र है जो लोग उक्त पुरुषों की सन्तान नहीं हैं अथवा उनसे विपरीत आचार-व्यवहार-वालों की सन्तान हैं वे सब नीचगोत्र, पद के वाच्य हैं, ऐसे लोगों के जन्म लेने से कारणभूत कर्म को भी नीचगोत्र कहते हैं । इस तरह गोकर्म की दो ही प्रकृतियाँ होती हैं । यह उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के मुकाबले में कितना सबल है, कहाँ तक विषय का स्पष्ट करता है और किस हद तक सन्तोषजनक है, इसे सहृदय पाठक एवं विद्वान महानुभाव स्वयं अनुभव कर सकते हैं। मैं तो, अपनी समझ के अनुसार, यहाँ पर सिर्फ इतना बतलाना चाहता कि इस उत्तर पक्ष का पहला विभाग तो बहुत कुछ स्पष्ट है। गोत्रकर्म जिनागम की खास वस्तु है और उसका यह उपदेश जो उक्त मूलसूत्र में संनिविष्ट है, अविच्छिन्न ऋषि-परम्परा से बराबर चला आता है। जिनागम के उपदेष्टा जिनेन्द्रदेव-भ. महावीर - राग, द्वेष, मोह और अज्ञान आदि दोषों से रहित थे। ये ही दोष असत्यवचन के कारण होते हैं। कारण के अभाव में कार्य का भी अभाव हो जाता है, और इसलिए सर्वज्ञ - वीतरागकथित इस गोत्रकर्म को असत्य नहीं कहा जा सकता, न उसका अभाव ही माना जा सकता है। कम-से-कम आगम प्रमाण - द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध । पूर्व पक्ष में भी उसके अभाव पर कोई विशेष जोर नही दिया गया, मात्र उच्चगोत्र के व्यवहार का यथेष्ट निर्णय न हो सकने के कारण उकताकर अथवा आनुषंगिक रूप से गोत्रकर्म का अभाव बतला दिया है। इसके लिये जो उत्तर दिया गया है, वह भी ठीक ही है। निःसन्देह, केवलज्ञान-गोचर कितनी ही ऐसी सूक्ष्म बातें भी होती हैं जो हम छद्मस्थों का विषय 20 सितम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International - 1. हाँ, उत्तरपक्ष दूसरा विभाग मुझे बहुत कुछ अस्पष्ट जान पड़ता है । उसमें जिन पुरुषों की संतान को उच्चगोत्र नाम दिया गया है। उनके विशेषणों पर से उनका ठीक स्पष्टीकरण नहीं होता- यह मालूम नहीं होता कि दीक्षा योग्य साधु-आचारों से कौन से आचार विशेष अभिप्रेत हैं? 2. 'दीक्षा' शब्द से मुनिदीक्षा का ही अभिप्राय है या श्रावकदीक्षा का भी ? क्योंकि प्रतिमाओं के अतिरिक्त श्रावकों के बारह व्रत भी द्वादशदीक्षा भेद कहलाते हैं । 3 . साधु आचार-वालों के साथ सम्बन्ध करने की जो बात कही गई है वह उन्हीं दीक्षायोग्य साधु आचार वालों से सम्बन्ध रखती है या दूसरे साधुआचार वालों से? 4. सम्बन्ध करने का अभिप्राय विवाह-सम्बन्ध का ही है या दूसरा उपदेश, सहनिवास, सहकार्य और व्यापार आदि का सम्बन्ध भी उसमें शामिल है ? 5. आर्याभिमत अथवा आर्यप्रत्ययाभिधान नामक व्यवहारों से कौन से व्यवहारों का प्रायोजन है? 6. और इन विशेषणों का एकत्र समवाय होना आवश्यक है अथवा पृथक-पृथक भी ये उच्चगोत्र के व्यंजक हैं? जब तक ये सब बातें स्पष्ट नहीं होतीं, तब तक उत्तर को सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता, न उससे किसी की पूरी तसल्ली हो सकती है और न उक्त प्रश्न ही यथेष्ट रूप में हल हो सकता है। साथ ही इस कथन की भी पूरी जाँच नहीं हो सकती कि 'गोत्र के इस स्वरूप कथन में पूर्वोक्त दोषों की सम्भावना नहीं है।' क्योंकि कल्पना द्वारा जब उक्त बातों का स्पष्टीकरण किया जाता है तो उक्त स्वरूप कथन में कितने ही दोष आकर खड़े हो जाते हैं। उदाहरण कि लिए यदि 'दीक्षा' का अभिप्राय मुनिदीक्षा का ही लिया जाय तो देवों को उच्चगोत्री नहीं कहा जाएगा, किसी पुरुष की सन्तान न होकर औपपादिक जन्मवाले होने से भी वे उच्चगोत्री नहीं रहेंगे। यदि श्रावक के व्रत भी दीक्षा में शामिल हैं तो तिर्यंच पशु भी उच्चगोत्री में ठहरेंगे। क्योंकि वे भी श्रावक के व्रत धारण करने के पात्र कहे गये हैं और अक्सर श्रावक के व्रत धारण करते आए । देव इससे भी उच्चगोत्री नहीं रहेंगे । क्योंकि उनके किसी प्रकार का व्रत नहीं होता, वे अव्रती कहे गए हैं। यदि सम्बन्ध का अभिप्राय विवाह सम्बन्ध से ही हो, जैसा कि म्लेच्छ-खण्डों से आए हुए म्लेच्छों का चक्रवर्ती आदि के साथ होता है फिर वे म्लेच्छ मुनिदीक्षा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524289
Book TitleJinabhashita 2004 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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