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________________ तक के पात्र समझे जाते हैं, तब भी देवतागण उच्चगोत्री के | किया गया है, जिससे यह विषय भले प्रकार प्रकाश में आ नही रहेंगे, क्योंकि उनका विवाह-सम्बन्ध ऐसे दीक्षायोग्य | सके और उक्त प्रश्न सभी के समझ में आने योग्य हल हो साध्वाचारों के साथ नहीं होता है। यदि सम्बन्ध का अभिप्राय | सके। उपदेश आदि दूसरे प्रकार के सम्बन्धों से हो तो शक, यवन, | सन्दर्भशवर, पुलिंद और चाण्डालदिक की तो बात ही क्या? 1. ये सब अवतरण और आगे के अवतरण भी आराके जैन सिद्धान्त भवन की प्रति पर से लिये गये हैं। तिर्यंच भी उच्चगोत्री हो जायेंगे, क्योंकि वे साध्वाचारों के 2. जैसा कि 'धवला' के ही प्रथम खण्ड में उद्धृत निम्न वाक्यों से प्रकट है : साथ उपदेशादि के सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं और साक्षात्। आगमो ह्याप्त वचनं आप्तं दोषक्षयं विदुः। भगवान् के समवसरण में भी पहुँच जाते हैं। इस प्रकार और त्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धेगत्वसंभवात्॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते सनृतम्। भी कितनी आपत्तियाँ खडी हो जाती हैं। यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतककारणं नास्ति। आशा है विद्वान लोग श्रीवीरसेनाचार्य के उक्त स्वरूप 3. जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में दिये हुए श्री विद्यानंद आचार्य के निम्न विषयक कथन पर गहरा विचार करके उन छहों बातों का वाक्य से प्रकट है: "तेन गृहस्थस्य पंचाणुव्रतानि सप्तशीलानि गुणव्रत शिक्षाव्रत व्यपदेशभाञ्जीति स्पष्टीकरण करने आदि की कृपा करेंगे जिनका ऊपर उल्लेख द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्तपूवर्काः सल्लेखनान्ताश्च महाव्रत तच्छीलवत्।" - बोध-कथा विद्या का घड़ा किसी योद्धा की दरिद्रता के कारण बड़ी बुरी हालत | सिद्ध पुरुष ने सोचा - यह बेचारा दरिद्रता के कारण हो गई। उसने खेती करनी शुरू की, लेकिन उसमें भी | बहुत दुखी है, अवश्य ही इसकी कुछ सहायता करनी सफलता नहीं मिली। चाहिए। अपने बुरे दिनों को देखकर उसे दुनिया से वैराग्य हो उसने कहा, 'बोलो, क्या चाहते हो? कोई विद्या चाहते आया और घर छोड़कर वह इधर-उधर घूमने लगा। धन । हो या विद्या से अभिमन्त्रित घड़ा?' कमाने के लिए उसने अनेक उपाय किये, लेकिन सब। ___योद्धा के माँगने पर सिद्धपुरुष ने उसे घड़ा दे दिया। निष्फल गये। - विद्या से अभिमन्त्रित घड़ा लेकर योद्धा अपने गाँव को यह देखकर योद्धा घर लौटने का विचार करने लगा। चला। रास्ते में जाते-जाते एक देव-मन्दिर पड़ा और रात को ____ उसने सोचा-ऐसी लक्ष्मी से क्या प्रयोजन जो विदेश में वह वहाँ ठहर गया। हो, जिसका मित्रगण उपभोग न कर सकें और जो शत्रुओं उसने देखा कि एक चित्र-विचित्र घड़ा लिये हुए कोई | को दिखाई न दे। आदमी मन्दिर में से निकला और उस घड़े को एक ओर यह सोचकर वह अपने गाँव आया तथा विद्या के बल रखकर उसकी पूजा करते हुए कहने लगा, 'तू शीघ्र ही मेरे से अपनी इच्छानुसार एक सुन्दर भवन बनवाकर अपने लिए सुन्दर शयनगृह बनाकर तैयार कर दे।' बन्धु और मित्रों समेत, बड़े आराम से समय-यापन करने क्षण भर में ही शयनगृह तैयार हो गया। लगा। फिर उसने शयन, आसन,धन, धान्य और परिजन आदि | एक दिन उसने उस विद्या के घड़े को कन्धे पर रखा, की माँग की। उस घड़े के प्रताप से वे सब चीजें भी फौरन | और 'मैं इसके प्रभाव से अपने बन्धु-बान्धवों के बीच ही तैयार हो गयीं। रहकर ऐश्वर्य का उपभोग करता हूँ,' यह कहता हुआ यह देखकर वह योद्धा सोचने लगा - इधर-उधर | मदिरा पीकर वह नृत्य करने लगा। घूमने-फिरने से क्या लाभ? मैं क्यों न इस सिद्ध पुरुष को योद्धा के नृत्य करते समय घड़ा फूट गया और वह प्रसन्न करने का प्रयत्न करूं। विद्या के प्रताप से जो वह ऐश्वर्य का भोग करता था, वह वह योद्धा सिद्ध पुरुष की सेवा-सुश्रूषा में लग गया। | ऐश्वर्य नष्ट हो गया। सिद्ध-पुरुष ने प्रसन्न होकर पूछा, क्या चाहते हो? । योद्धा सोचने लगा कि अभिमन्त्रित घड़े की जगह योद्धा- मैं बड़ा अभागा हूँ। दरिद्रता के कारण बड़े | यदि वह विद्या मांग लेता तो घड़ा फूट जाने पर भी वह कष्ट में हूँ। आपकी शरण में आया हूँ। आपकी दया से | आराम से रह सकता था। लेकिन अब क्या हो सकता था? अपना दारिद्रय दूर करना चाहता हूँ। 'दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ' सितम्बर 2004 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524289
Book TitleJinabhashita 2004 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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