SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का व्यापार माना जाय, जो इन क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न हों उन्हें ही उच्चगोत्री कहा जाय, तो यह बात भी समुचित प्रतीत नहीं होती। क्योंकि प्रथम तो इक्ष्वाकुआदि क्षत्रियकुल काल्पनिक हैं, परमार्थ से (वास्तव में) उनका कोई अस्तित्व नहीं है। दूसरे, वैश्यों, ब्राह्मणों और शूद्रों में भी उच्चगोत्र के उदय का विधान पाया जाता है। 6. "न सम्पन्नेभ्यो जीवोत्पत्तौ तद्व्यापारः, म्लेछराजसमुत्पन्न - पृथुकस्यापि उच्चैर्गोत्रोदयप्रसंगात् । " सम्पन्न (समृद्ध ) पुरुषों से उत्पन्न होने वाले जीवों में यदि उच्चगोत्र का व्यापार माना जाय, समृद्धों एवं धनाढ्यों की सन्तान को ही उच्च गोत्री कहा जाय, तो म्लेच्छ राजा से उत्पन्न हुए पृथुक के भी उच्च गोत्र का उदय मानना पड़ेगा और ऐसा माना नहीं जाता। (इसके सिवाय, जो सम्पन्नों से उत्पन्न न होकर निर्धनों से उत्पन्न होंगे, उनके उच्चगोत्र का निषेध भी करना पड़ेगा, और यह बात सिद्धान्त के विरूद्ध जाएगी ।) 7. "नाऽणुव्रतिभ्यः समुत्पत्तौ तद्द्व्यापारः, देवेष्वौपपादिकेषु उचैर्गोत्रोदयस्य असत्वप्रसंगात्, नाभेयश्च (स्य? ) नीचैर्गोत्रतापत्तेश्च ।" अणुव्रतियों से उत्पन्न होने वाले व्यक्तियों में यदि उच्चगोत्र व्यापार माना जाए अणुव्रतियों की सन्तानों को ही उच्चगोत्री माना जाय, तो यह बात भी सुघटित नहीं होती। क्योंकि ऐसा मानने पर देवों में, जिनका जन्म औपपादिक होता है। और जो अणुव्रतियों से पैदा नहीं होते, उच्चगोत्र के उदय का अभाव मानना पड़ेगा और साथ ही नाभिराजा के पुत्र श्री ऋषभदेव (आदि तीर्थंकर) को भी नीचगोत्री बतलाना पड़ेगा। क्योंकि नाभिराजा अणुव्रती नहीं थे, उस समय तो व्रतों का कोई विधान भी नहीं हो पाया था । 8." ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रं, तत एव न तस्य कर्मत्वमपि, तदभावेन नीचैर्गोत्रमपि द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्, ततो गोत्रकर्माभाव इति । " 1 जब उक्त प्रकार से उच्चगोत्र का व्यवहार कहीं ठीक बैठता नहीं, तब उच्चगोत्र निष्फल जान पड़ता है और इसीलिए उसके कर्मपना भी कुछ बनता नहीं। उच्चगोत्र के अभाव से नीचगोत्र का भी अभाव हो जाता है; क्योंकि दोनों में परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है- एक के बिना दूसरे का अस्तित्व बनता नहीं । और इसलिए गोत्रकर्म का ही अभाव सिद्ध होता है । इस तरह गोत्रकर्म पर आपत्ति का यह 'पूर्वपक्ष' किया गया है, और इससे स्पष्ट जाना जाता है कि गोत्रकर्म अथवा उसका ऊँच-नीच विभाग आज ही कुछ आपत्ति का विषय बना हुआ नहीं है, बल्कि आज से 1100 वर्ष से भी अधिक समय पहले से वह आपत्ति का विषय बना हुआ थागोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता पर लोग तरह-तरह की आशंकाएँ उठाते थे और इस बात को जानने के लिए बड़े ही उत्कण्ठित रहते थे कि गोत्रकर्म के आधार पर किसको ऊँच और किसको नीच कहा जाय? - उसकी कोई कसौटी मालूम होनी चाहिए। पाठक यह भी जानने के लिए बड़े उत्सुक होंगे कि आखिर वीरसेनाचार्य ने अपनी धवलाटीका में, उक्त पूर्वपक्ष का क्या 'उत्तरपक्ष' दिया है और कैसे उन प्रधान आपत्तियों का समाधान किया है जो पूर्व पक्ष के आठवें विभाग में खड़ी की गई हैं। अतः मैं भी अब उस उत्तरपक्ष को प्रकट करने में विलम्ब करना नहीं चाहता। पूर्व पक्ष के आठवें विभाग में जो आपत्तियां खड़ी की गई हैं। वे संक्षेपतः दो भागों में बाँटी जा सकती हैं, एक तो उच्चगोत्र का व्यवहार कहीं ठीक न बनने से उच्चगोत्र की निष्फलता और दूसरा गोत्रकर्म का अभाव। इसीलिए उत्तरपक्ष को भी दो भागों में बाँटा गया है, पिछले भाग का उत्तर पहले और पूर्व विभाग का उत्तर बाद को दिया गया हैऔर वह सब क्रमशः इस प्रकार है Jain Education International 1. " (इति) न, जिनवचनास्याऽसत्यत्वविरोधात्, तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयीकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनाऽनुपलंभाज्जिनवचनास्याऽप्रमाणत्व- मुच्येत' इस प्रकार गोत्रकर्म का अभाव कहना ठीक नहीं है, क्योंकि गोत्रकर्म का निर्देश जिनवचन द्वारा हुआ है और जिनवचन असत्य का विरोधी है। यह बात इतने पर से जानी जा सकती है कि उसके वक्ता श्री जिनेन्द्रदेव ऐसे आप्त पुरुष होते हैं जिनमें असत्य के कारणभूत राग-द्वेषमोहादिक दोषों का सद्भाव नहीं रहता। 2 जहाँ असत्य कथन का कोई कारण ही विद्यमान न हो वहाँ से असत्य की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती, और इसलिये जिनेन्द्र कथित गोत्रकर्म का अस्तित्व जरूर है। इसके सिवाय, जो भी पदार्थ केवलज्ञान के विषय होते हैं उन सबमें रागीजीवों के ज्ञान प्रवृत्त नहीं होते, जिससे उन्हें उनकी उपलब्धि न होने पर जिनवचन को अप्रमाण कहा जा सके। अर्थात् केवलज्ञानगोचर कितनी ही बातें ऐसी भी होती हैं जो छद्मस्थों के ज्ञान का विषय नहीं बन सकतीं, और इसलिए रागाक्रान्त छद्मस्थों को यदि उनके अस्तित्व स्पष्ट अनुभव न हो सके तो इतने पर से ही उन्हें अप्रमाण या असत्य नहीं कहा जा सकता। 2. " न च निष्फलं (उच्चैः ) गोत्रं, दीक्षायोग्य For Private & Personal Use Only सितम्बर 2004 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org
SR No.524289
Book TitleJinabhashita 2004 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy