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________________ तत्त्व चर्चा षट्खण्डागमके 'वेदना' नामका चतुर्थ खण्ड के चौबीस अधिकारों में से पाँचवे 'पयडि' (प्रकृति) नामक अधिकार का वर्णन करते हुए, श्री भूतबली आचार्य ने गोत्रकर्मविषयक एक सूत्र निम्न प्रकार दिया है: 'गोदस्य कम्मस्स दुवे पयडीओ उच्चागोदं चेव णीचागदं चेव एवदियाओ पयडीओ ॥ 129 ॥" श्री वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में, इस सूत्र पर जो टीका लिखी है वह बड़ी ही मनोरंजक है और उससे अनेक नई नई बातें प्रकाश में आती हैं- गोत्रकर्म पर तो अच्छा खासा प्रकाश पड़ता है और यह मालूम होता है कि वीरसेनाचार्य के अस्तित्वसमय अथवा धवलाटीका (धवलसिद्धान्त) के निर्माण-समय (शक सं. 738) तक गोत्रकर्म पर क्या कुछ आपत्ति की जाती थी? अपने पाठकों के सामने विचार की अच्छी सामग्री प्रस्तुत करने और उनकी विवेकवृद्धि के लिये मैं उसे क्रमश: यहाँ देना चाहता हूँ । " ऊँच - गोत्र का व्यवहार कहाँ ? ( धवल सिद्धान्त का एक मनोरञ्जक वर्णन ) टीका का प्रारम्भ करते हुए, सबसे पहले यह प्रश्न उठाया गया है कि- "उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापार: ?'- अर्थात् ऊँच गोत्र का व्यापार-व्यवहार कहाँ ? - किन्हें उच्चगोत्री समझा जाय? इसके बाद प्रश्न को स्पष्ट करते हुए और उसके समाधान रूप में जो जो बातें कही जाती हैं, उन्हें सदोष बतलाते हुए जो कुछ कहा गया है, वह सब क्रमशः इस प्रकार है : 1. " न तावद्राज्यादिलक्षणायां संपदि (व्यापारः ), तस्याः सद्वेद्यतस्समुत्पत्तेः ।" अर्थात् - यदि राज्यादि -लक्षणवाली सम्पदा के साथ उच्चगोत्र का व्यापार माना जाय, ऐसे सम्पत्तिशालियों को ही उच्चगोत्री कहा जाय, तो यह बात नहीं बनती। क्योंकि ऐसी सम्पत्ति की समुत्पत्ति अथवा सम्प्राप्ति सातावेदनीय कर्म के निमित्त से होती है। उच्चगोत्र का उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। 2. "नाऽपिपंचमहाव्रतग्रहण-योग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्ययोग्येषु उच्चैर्गोत्रस्य उदयाभावप्रसंगात्।'' 18 सितम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार यदि कहा जाय कि उच्च गोत्र के उदय से पँच महाव्रतों के ग्रहण की योग्यता उत्पन्न होती है और इसलिए जिनमें पंचमहाव्रतों के ग्रहण की योग्यता पाई जाय उन्हें ही उच्चगोत्री समझा जाए, तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर देवों में और अभव्यों में, जो कि पँचमहाव्रत ग्रहण के अयोग्य होते हैं, उच्चगोत्र के उदय का अभाव मानना पड़ेगा; परन्तु देवों के उच्चगोत्र का उदय माना गया है और अभव्यों के भी उसके उदय का निषेध नहीं किया गया है। 3. " न सम्यग्ज्ञानोत्पत्तौ व्यापारः, ज्ञानावरण-क्षयोपशमसहाय - सम्यग्दर्शनतस्त-दुत्पत्तेः, तिर्यक्नारकेष्वपि उच्चैर्गोत्रं तत्र सम्यगज्ञानस्य सत्त्वात् ।" यदि सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति के साथ में ऊँच गोत्र का व्यापार माना जाय जो सम्यग्ज्ञानी हों उन्हें उच्चगोत्री कहा जाय तो यह बात ठीक घटित नहीं होती; क्योंकि प्रथम तो ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की सहायता पूर्वक सम्यग्दर्शन से सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उच्चगोत्र का उदय उसकी उत्पत्ति में कोई कारण नहीं है। दूसरे, तिर्यंच और नारकियों में भी सम्यग्ज्ञान का सद्भाव पाया जाता है; तब उनमें भी उच्चगोत्र का उदय मानना पड़ेगा और यह बात सिद्धान्त के विरुद्ध होगी, सिद्धान्त में नारकियों और तिर्यंचों के नीचगोत्र का उदय बतलाया है। 4. " नादेयत्वे यशसि सौभाग्ये वा व्यापारस्तेषां नामतस्समुत्पत्तेः।” यदि आदेयत्व, यश अथवा सौभाग्य के साथ में उच्चगोत्र का व्यवहार माना जाय, जो आदेयगुण से विशिष्ट (कान्तिमान् ), यशस्वी अथवा सौभाग्यशाली हों उन्हें ही उच्चगोत्री कहा जाय, तो यह बात भी नहीं बनती। क्योंकि इन गुणों की उत्पत्ति आदेय, यशः और सुभग नामक नामकर्म प्रकृतियों के उदय से होती है। उच्चगोत्र उनकी उत्पत्ति में कोई कारण नहीं है । 5. "नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तौ (व्यापारः ) काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्वाद्, विड्-ब्राह्मण-साधु (शूद्रे ? ) ष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात् । " यदि इक्ष्वाकु कुलादि में उत्पन्न होने के साथ ऊँचगोत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524289
Book TitleJinabhashita 2004 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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