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श्रमण परम्परा के आदर्श संत जैनाचार्य विद्यासागर जी और उनका तीर्थ
भारत भूमि पर जब-जब वैचारिक भटकाव की स्थिति आयी तब-तब शांति सुधारस की वर्षा करने वाले अनेक महापुरुषों एवं कवियों ने जन्म लेकर अपनी कथनी-करनी के माध्यम से विश्व को एकता के सूत्र में पिरोया तथा त्रस्त एवं विघटित समाज को एक नवीन सम्बल प्रदान किया। इन महापुरुषों में प्रमुखतया भगवान् राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, पैगाम्बर, संतकबीर, नानक, कुन्दकुन्दाचार्य जैसे महान् साधकों ने अपनी आत्म साधना के बल पर स्वतंत्रता एवं समानता के जीवन मूल्य प्रस्तुत करके सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र में बांधा है। इनके त्याग, संयम, सिद्धांत एवं वाणी में आज भी सुख शांति की सुगंधा सुवासित है। इस क्रम में संत कवि जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान समय में शिखर पुरुष हैं, जिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुता, व्यक्तित्व में समता, जीने में सादगी की त्रिवेणी प्रवाहित है। सन् 1968 में मुनिव्रत एवं सन् 1972 में आचार्य पद ग्रहण करने के पश्चात् अपनी कर्मभूमि में सतत् क्रियाशीलता का परिणाम है कि वर्तमान में करीब 200 शिष्य श्रमण, साधना, तप, ध्यान, नियम, संयम एवं समता का पालन कर श्रमण संस्कृति की विकास यात्रा में सहयोगी बने हुए हैं।
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आचार्य विद्यासागर उच्च कोटि के साधक और संत होते हुये एक श्रेष्ठ साहित्यकार भी हैं। आपने उत्कृष्ट साधना के साथसाथ रचना शीलता के विविध सोपानों, आयामों को स्पर्श कर चिंतन-मनन और दर्शन की जो त्रिवेणी प्रवाहित की है वह नि:संदेह अद्वितीय है। आपने केवल गद्य ही नहीं अपितु पद्य की अनेक विधाओं को जो सरलता प्रदान की है वह अनुकरणीय है। आपने साहित्य के द्वारा जिस यथार्थ की अभिव्यक्ति अध्यात्म एवं दर्शन के माध्यम से की है वह काफी बेजोड़ है। आपकी रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना के स्वर सुनाई पड़ते है नारी की व्याख्या समकालीन दृष्टि से नये संदर्भों में की है जो वास्तव में सामाजिक विकास की धुरी है। दार्शनिक विचारों की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि जीवन का सारत्व निज स्वरूप को पहचानने में है। आत्म दर्शन के द्वारा ही विश्व दर्शन की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। आचार्य श्री की प्रमुख रचनाओं में नर्मदा का नरम कंकर, डूबो मत लगाओ डुबकी, तोता क्यों रोता, दोहा दोहन, चेतना के गहराब में, पंचशती इत्यादि हैं। आपका सर्वाधिक चर्चित महाकाव्य "मूकमाटी" है, जिसमें आचार्य श्री ने माटी जैसी निरीह, पददलित, व्यथित वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाकर उसकी मूक वेदना और मुक्ति
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डॉ. पी.सी. जैन
की आकांक्षा को वाणी दी है। कुम्हार मिट्टी की भावना को पहचानकर उसे कूट छानकर सभी व्यर्थ द्रव्यों को हटाकर निर्मल, मृदुता का वर्ण लाभ देते हुये चाक पर चढ़ाकर अवे में तपाकर उसे कार्य योग्य बनाता है, जो आगे चलकर पूजन का मंगल घट बनकर जीवन की सार्थकता को प्राप्त करता है। यह कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती मंजिलों की मुक्ति यात्रा का रूपक है। महाकाव्य की रचना के पीछे आचार्य श्री का ध्येय मानव पीढ़ि को शुभ संस्कारों से सांस्कारित करना तथा सामाजिक, धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट कुरीतियों को निर्मूल करना व्यक्ति के अंदर आस्था, विश्वास, पुरुषार्थ और कर्त्तव्य की भावना तथा चरित्र एवं अनुशासन का दैनंदिन प्रयोग इस कृति का पार्थेय है। महाकाव्य में नारी स्वतंत्रता, लोकतंत्र की स्थापना, आयुर्वेद की महत्तता, अहिंसा की गरिमा आदि आचार्य श्री की बहुज्ञता का परिचय देती है।
आचार्य श्री की तीर्थयात्रा बहुआयामी है उनमें प्रमुखतया:(1) जीवदया
(2) धर्म प्रचार
(3) तीर्थक्षेत्रों का जीर्णोद्धार (4) जैन साहित्य शोध
(5) नैतिक शिक्षा
(1) जीवदया गौवध एवं मांस निर्यात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने एवं गौवंश को बचाये रखना भारतीय संस्कृति को बचाये रखना बराबर है। गौवंश की सुरक्षा करने से प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव एवं अहिंसा का पालन होता है। गाय एक ऐसा बहुआयामी प्राणी है जिसका दूध, बछड़ा, मूत्र, गोबर एवं चमड़ा तक काम में आता है। अतः कृषि प्रधान देश में सहायक धंधे के रूप में गाय को पालकर अतिरिक्त धनोपार्जन किया जा सकता है। गौवंश नष्ट या लुप्तप्राय होने की स्थिति में प्राकृतिक सन्तुलन गड़बड़ा सकता है, इससे प्राकृतिक आपदाओं की बारम्बारता बढ़ सकती है। आचार्य श्री देश के विभिन्न क्षेत्रों में गौशालाओं का निर्माण करके प्राणी मात्र को बचाने का सतत् प्रयास कर रहे हैं।
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(2) धर्म प्रचार आज से 50 वर्ष पूर्व देश में यह स्थिति थी कि मुनि के दर्शन दुर्लभ थे। अनेक जैन बन्धुओं की एक-दो पीढ़ि ने मुनिराजों के दर्शन ही नहीं किये थे परिणामस्वरूप उनकी धार्मिक क्रियाओं के ढंग ही बदलते जा रहे थे। हम सभी सौभाग्यशाली हैं कि हमारा जन्म ऐसे समय हुआ जब आचार्य
• जुलाई 2003 जिनभाषित
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