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________________ विद्यासागर के जीवन का चरम लक्ष्य है। वीतराग होकर वे इसी पथ के पथिक बने हैं और कालजयी आकाशदीप बनकर भवसागर में जीवन नौका खेने वालों को, भूले-भटकों को सही राह बताने के लिए उन्होंने सदैव आलोक दिया है तथा उनका पथ प्रशस्त किया है। बाह्याडम्बरों, पिष्टपेषित रूढ़ियों को उन्होंने सदैव धिक्कारा है, विरोध किया है। वे आज के कबीर हैं, रविदास हैं, गुरुनानक हैं । वे कह उठते हैं कि कच- लुंचन और वसन- मुंचन से व्यक्ति सन्त नहीं बन सकता। उसे सन्त बनने के लिए मन की विकृतियों का लुंचन-मंचन करना पड़ेगा। सन्त प्रवर कहते हैं "न मोक्ष मात्र कच - लुंचन कर्म से हो, साधु नहीं वसन-मंचन मात्र से हो।" संत दादू की तरह वे कर्मकाण्ड और परम्परागत रूढ़ियों का विरोध करते हुए कह उठते हैं "कीचड़ में पद रखकर लथपथ हो निर्मल जल से स्नान करने की अपेक्षा कीचड़ की उपेक्षाकर दूर रहना ही बुद्धिमानी है।" यहाँ संत विद्यासागर जी क्रान्ति का स्वर फूँकते दिखाई देते हैं। वे केवल विद्रोही ही नहीं, क्रान्तिकारी भी हैं। उनकी क्रान्ति राजनीतिक नहीं, वह भावात्मक एवं सामाजिक कोटि की है। वे समष्टि के पुरोधा हैं। वे उच्चकोटि के साधक और मुनि प्रवर तथा संत प्रवृत्ति के होते हुए भी लेखनी के धनी साहित्यकार, कवि भी हैं। यद्यपि उन्होंने अनेकानेक सुन्दर ग्रन्थों, काव्य कृतियों की रचना की है परन्तु 'मूकमाटी' आधुनिक साहित्य में उनकी अप्रतिम कालजयी रचना है। केवल 'मूकमाटी' ही उनके कविव्यक्तित्व की सदियों तक प्रेरणा का स्रोत रहेगी। उनके कवि जीवन तथा साधना का निचोड़ इसी अमर कृति में है। आधुनिक श्रेष्ठ महाकाव्यों की परम्परा में उसे शीर्ष स्थान प्राप्त हुआ है। जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' के समान उसका लक्ष्य भी आनन्द की सृष्टि करना है। जिस प्रकार प्रसाद जी ने यह कहना चाहा है कि मनु अर्थात् मानव वासना के पंकिल या कीचड़ से निकल कर ही श्रद्धा और विश्वास को लेकर, वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए, आनन्द के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है, उसी प्रकार मूकमाटी का रचनाकार यह कहना चाहता है कि श्रद्धा और विश्वास के अमृत को पीकर, विज्ञान सम्मत दृष्टि अपनाकर, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ओर सम्यक्चारित्र का अवलम्बन लेकर मनुष्य आनन्द की सृष्टि कर सकता है।'कामायनी' की भाँति 'मूकमाटी' जीवन्त महाकाव्य है, स्वच्छन्द शैली का परिपक्व काव्य है। जहाँ मूकमाटी, जो पतितवासना है, पतितवासना भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र जुलाई 2003 जिनभाषित 6 Jain Education International आँवे में पककर परिपक्व कुम्भ का रूप धारण करती है और मानव मात्र को आनन्द का शीतल जल पिलाकर, उसकी ज्ञान पिपासा को शान्त करते हुए आत्मा का उद्धार करती है। यही मोक्ष है, अमरत्व है और मनुष्य का अविनश्वर सुख । महाकवि कहता है "बन्धन रूप तन, मन और वचन का आमूल मिट जाना ही मोक्ष है इसी की शुद्ध दशा में अविनश्वर सुख होता है जिसे प्राप्त होने के बाद यहाँ संसार में आना कैसे सम्भव है तुम्हीं बताओ विश्वास की अनुभूति मिलेगी अवश्य मिलेगी, मगर मार्ग में नहीं, मंजिल पर । और यहाँ मौन में डूबते हुए सन्त और माहौल को अनिमेष निहारती - सी 'मूकमाटी'!" 'मूकमाटी' के अमर रचनाकार ने एक रूपक प्रस्तुत किया है जिसमें जीवन का सत्य पिरोया हुआ है। संत ने मानव जीवन को निकट से देखा है, परखा है और जिया है। जीवन का साक्षात्कार ही मूकमाटी की रचना का आधार बना है जिसमें मनुष्य की जीवन-यात्रा का सहज-सरल चित्र उकेर दिया गया है। आदमी से बढ़कर कोई योनि नहीं है, आदमी से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। यह ग्रन्थ मानवता का सफरनामा है। मानव जीवन का उपनिषद् है । देवता भी इस मानव जीवन की लालसा रखते हैं। पृथ्वी एक कुरुक्षेत्र है, धर्मक्षेत्र है, कर्मक्षेत्र है और मनुष्य एक योद्धा एक सिपाही । संघर्ष उसके जीवन का निकष है। संघर्ष का सिपाही सदैव मंगल की ही सृष्टि करता है। मूकमाटी का अमर गायक यही कहना चाहता है। यही उस मुनि प्रवर का आशीर्वाद है। "यहाँ . सबका सदा जीवन बने मंगलमय छा जावे सुख-छाँव सबके सब टलें अमंगल भाव, सबकी जीवनलता हरित भरित विहसित हो। गुण के फूल विलसित हॉ नाशा की आशा मिटे आमूल महक उठे । " ऐसे मुनि प्रवर साधक को मेरा कोटिशः प्रणाम । एफ- 115/27, शिवाजी नगर, For Private & Personal Use Only भोपाल www.jainelibrary.org.
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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