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संतप्रवर आचार्य विद्यासागर का कृतित्व एवं व्यक्तित्व
डॉ. संकटाप्रसाद मिश्र
श्रमण एवं श्रमण परम्परा के आदर्श सन्त जैनाचार्य श्री | लोग जीवन के विषाक्त बन्धनों से मुक्त होकर सदा के लिए विद्यासागर जी आर्ष परम्परा के श्रेष्ठ मुनि हैं। वे प्रेम, सेवा, वात्सल्य, | आनन्द के सागर में डूब जाते हैं। जो नहीं डूब पाते उनका जीवन उपकार, उदारता, दयालुता, उत्साह, उल्लास एवं नैतिकता के सदा के लिए बूड़ जाता है। इस जीवन के संसारी जन बीच में फँस जीवन्त रूप हैं। ऐसे सन्त धरती के उद्धारक बनते हैं। सन्त का जाते हैं, उद्धार नहीं पा पाते। उनकी सांसारिक जीवन बेड़े की जीवन आचरण में समभाव रखता है। वह मानवीय मूल्यों का | नौका डगमगाती हुई बीच मझधार में डूब जाती है। अनबूड़े बूड़े संरक्षक होता है। सन्त दूसरों के लिए जीता है, कथनी और करनी | तिरे, जे बूड़े सब अंग'। जो आनन्द के सरोवर में तन-मन से डूब में सामंजस्य एवं तादात्म्य स्थापित करते हुए जनकल्याणकारी | जाते हैं वे मोक्ष पा जाते हैं, तिर जाते हैं और जो तन-मन से नहीं भावनाओं से सदा आप्लावित रहता है। ऋषि प्रवर विद्यासागर जी | डूब पाते, वे बूड़ जाते हैं। वे नरक के कीच में धंस जाते हैं। का जीवन नर्मदा के कंकर से शंकर बन गया है।
मुनि प्रवर विद्यासागर जी ने मूकमाटी में यही दर्शन प्रस्तुत जैन धर्म पवित्रता का हामी है। क्षमा उसका प्राण है। उस किया है कि 'मूकमाटी' साधना की माटी है। वह अध्यात्म और प्राण को धारण करने वाले पवित्रता की मूर्ति श्री विद्यासागर जी साधना के निकर्ष पर इच्छा, क्रिया और ज्ञान के समन्वय से जीवन हैं। वे केवल साधक ही नहीं बल्कि, लोकविश्रुत साहित्य-सर्जक | में सार्थकता की सृष्टि करती है, आनन्दमय वृष्टि करती है और भी हैं। वे माँ सरस्वती के वरदपुत्र हैं, जिव्हा पर माँ शारदा का | मानवता का सन्देश देती है। यदि मनुष्य अपने जीवन को सार्थकता प्रसाद विद्यमान है। वे हिन्दी सन्त काव्य परम्परा के कबीर हैं, प्रदान करना चाहता है तो उसे 'मूकमाटी' की साधना का मार्ग रामकथा के अमर गायक तुलसी हैं और प्रज्ञाचक्षु,माखनचोर कृष्ण अपनाते हुए मंगलमय घट से आनन्द की वृष्टि करनी होगी। यही की बाल सुलभ चेष्टाओं का गायन करने वाले, सूर हैं। वे जैन धर्म सन्त शिरोमणि, महाकवि विद्यासागर का उद्घोष है। 'मूकमाटी' के ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता के तीर्थराज प्रयाग हैं जहाँ सन्त विद्यासागर के जीवन की आत्मकथा है। वह सन्त साधना इच्छा, क्रिया और ज्ञान की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है। उनके की, इन्सानियत की उदात्त महाकाव्यात्मक गाथा है। आचार्य वचनामृत की त्रिवेणी में डुबकी लगाकर सारे पापों का प्रक्षालन विद्यासागर का जीवन सतोगुणी रहा है। एक महाव्रती के जीवन कर श्रद्धालु धन्य हो जाते हैं। अपने अस्तित्व को जिस प्रकार गंगा | को उन्होंने जिया है और अपने सत्कर्मों से उसे सार्थकता प्रदान गंगोत्री से निकलकर गंगासागर में विलीन कर देती है, अनन्त | की है। सौन्दर्य दिया है। उनका जीवन उस नदी की धारा के सागर का रूप धारण भी कर लेती है और जहाँ से शुभता के समान है जो अपने अस्तित्व को मिटाकर महासागर में विलीन हो सजल मेघखण्ड उठते हैं और तप्त वसुन्धरा की प्यास को बुझाते जाती है। व्यक्तित्व के अहं को, मद को मिटाकर अपने अस्तित्व हुए उसे शस्य श्यामला बना देते हैं, उसी प्रकार की पावनपूत धारा को प्रभु के महासत्व में विलीन कर देना ही समर्पण की भावना का मुनि प्रवर, सन्तशिरोमणि आचार्य विद्यासागर के जीवन में प्रवाहित चरमोत्कर्ष है। आज के समाज में मनुष्य अहं और स्वार्थ के हो रही है। वे शुभता की वर्षा करते हैं, क्षमा के बीज बोते हैं और | कीचड़ में सर्वथा आपादमस्तक धंसा हुआ है। आज के मनुष्य के मधुरी बानी की उल्लासमयी जीवनधारा प्रवाहित करते हैं जिसमें स्वार्थ और उसकी संकीर्णताएँ पराकाष्ठा पर पहुंच गई हैं। वह जैन समाज ही नहीं बल्कि पूरा लोक, पूरा समाज डूब जाता है अपने को, अपने प्रभु को भूल चुका है। ऐसे समय में आचार्य और ऐसा प्रसाद पाता है जिससे उसे परम आनन्द की, सुख की विद्यासागर का यह दोहा प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। मूकमाटी' अनुभूति होती है। जीवन की मूकमाटी पवित्रघट बनकर, मानवता महाकाव्य के यशस्वी महाकवि संत विद्यासागर जी मनुष्य को का शीतल जल पिलाकर दूसरे की पिपासा को शान्त करती है। | जगाते हुए कहते हैंयही मूकमाटी के अमर गायक का अन्तिम संदेश है, अभीष्ट भी।
"देखो नदी प्रथम है निज को मिटाती कोरा ज्ञान अहम् पैदा करता है, आस्था का जल नहीं पिलाता।
खोती, तभी, अमित सागर रूप पाती। संत ज्ञानामृत पीकर भाव की ऐसी गंगा और नर्मदा प्रवाहित कर
व्यक्तित्व के अहं को, मद को मिटादे देता है, ऐसे तीर्थों का निर्माण कर देता है जहाँ सामान्य जन सुकून
तू भी- 'स्व' को सहज में, प्रभु में मिला दे।'. का अनुभव करता है, जीने की प्रेरणा पाता है, जीवन का उल्लास निजता को मिटाकर 'स्व' को सहज रूप में प्रभु में विलीन पाता है और सदा-सदा के लिए भवसागर से पार उतर जाता है।। कर देना ही मानव-जीवन की सार्थकता है। यही गुण धर्म आचार्य
-जुलाई 2003 जिनभाषित
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