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विद्यमान थी । अतः इस राजतन्त्र में दिगम्बर जैन साधु धार्मिक स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने के लिए लोगों के बीच नंगे घूमतेफिरते थे, यह तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बर जैन साधुओं का नग्न रहना एक महान् दार्शनिक और आध्यात्मिक सिद्धान्त पर आधारित है। वह सिद्धान्त है मोक्ष के लिए स्वात्मा से भिन्न समस्त शरीरादि पदार्थों से राग छोड़ना और उनकी अधीनता से मुक्त होना। इसे जैन सिद्धान्त में अपरिग्रह और वीतरागता कहा गया है । वस्त्रत्याग आत्मभिन्न समस्त पदार्थों से राग छोड़ने का चरम परिणाम है। वस्त्रत्याग कोई भी स्वस्थमस्तिष्क मामूली आदमी नहीं कर सकता। या तो पागल व्यक्ति ही नग्न हो सकता है अथवा महान् संयमी, कामजयी और शीत, उष्ण, दंश मंशक आदि से उत्पन्न पीड़ाओं को शान्तभाव से सहन करने में समर्थ पुरुष ही। दिगम्बर जैन साधु इस अलौकिक श्रेणी के ही पुरुष हैं। उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने के उद्देश्य से नग्न विचरण करनेवाला कहना अपनी कूपमण्डूक बुद्धि या प्रकृतजन - सामान्य समझ का परिचय देना है।
धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का दुरुपयोग करने के उद्देश्य से कोई एक-दो व्यक्ति एक-दो दिन लोगों के बीच नंगे घूम सकते हैं, कोई एक ग्रूप माह दो माह नग्न विचरण कर सकता है, किन्तु ऐसे विकृतमस्तिष्क लोग चौबीसों घंटे नग्न नहीं रह सकते, क्योंकि चौबीसों घंटे नग्न रहकर ठंड, गर्मी, खटमल, मच्छर आदि की पीड़ाएँ सहना उनके वश की बात नहीं है। किन्तु दिगम्बर जैन मुनि चौबीसों घंटे नग्न रहते हैं, लकड़ी के तख्त पर नग्न शरीर सोते हैं, कड़कती ठंड में भी कम्बल - रजाई - चादर आदि नहीं ओढ़ते, मच्छरों के काटने पर भी उफ नहीं करते । क्या एकान्त में नग्न रहकर इन पीड़ाओं को समभाव से सहन करने का उद्देश्य भी धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का दुरुपयोग करना है ? मात्र धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का दुरुपयोग करने के लिए कोई इतने कष्ट सहन करेगा, यह सोचना बुद्धि का दिवालियापन है। किसी महान् उद्देश्य के बिना नग्नता के इन कष्टों को समभाव से सहना संभव नहीं है। और किसी महान् उद्देश्य के बिना नग्न जैन साधुओं और उनके अनुयायियों की परम्परा का पाँच हजार वर्षों से निरन्तर चला आना असंभव है। अतः सिद्ध है कि दिगम्बर जैन मुनि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का दुरुपयोग करने के उद्देश्य से नहीं, अपितु मोक्षप्राप्ति के उद्देश्य से नग्न रहते हैं।
श्रमण परम्परा में साधुओं के नग्न रहने की प्रथा बहुत पुरानी है। भगवान् बुद्ध के युग में दिगम्बर जैन (निर्ग्रन्थ) साधुओं के अतिरिक्त आजीविक सम्प्रदाय के साधु भी नग्न रहते थे। उपनिषदों में परमहंस नामक साधुओं का वर्णन है, जो नग्नवेशधारी होते थे। हिन्दूधर्म में नागा साधुओं का आस्तित्व आज भी देखने में आता है। कुम्भ के मेलों में उनके दर्शन बड़ी मात्रा में होते हैं। क्या इन सब के नग्न रहने का उद्देश्य धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का दुरुपयोग करना है ? यह बात तो स्वप्न में भी नहीं सोची जा सकती। अतः माननीय सोली जे. सोराबजी की दिगम्बर जैन साधुओं के विषय में की गई टिपण्णी न केवल दिगम्बर जैन धर्म का, अपितु सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति का अपमान है। इससे दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायियों की भावनाएं आहत हुई हैं। अतः माननीय सोराबजी को अपने पद की गरिमा और कर्त्तव्य का ख्याल रखते हुए अपनी टिप्पणी पर अविलम्ब खेद व्यक्त करना चाहिए।
मुम्बई के प्रसिद्ध दिगम्बर जैन पत्रकार श्री बाल पाटील ने सोराब जी की इस टिप्पणी पर सर्वप्रथम विरोध प्रकट किया है। श्री इंडिया जी ने दिगम्बर जैनों का आह्वान करते हुए लिखा है।
"यदि आप भी यह मानते हैं कि सोराव जी की टिप्पणी दिगम्बर जैन धर्मावलम्बियों के लिए मानहानि कारक है तो कृपया सोली सोराब जी, सम्पादक 'टाइम्स आफ इण्डिया', श्रीमती इन्दु जैन तथा अध्यक्ष- प्रेस परिषद् को आज ही पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज करायें और इसकी सूचना श्री बाल पाटील को भी देकर उनके हाथ मजबूत करें सुविधा के लिए इन सब के पते यहाँ दिये जा रहे हैं- "
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सोली जे. सोराब जी, भारत के एटानी जनरल, 10 मोतीलाल नेहरू मार्ग, नई दिल्ली 110011
श्री दिलीप पडगांवकर, प्रबन्ध सम्पादक, टाइम्स आफ इण्डिया, बहादुरशाह जफर मार्ग, नई दिल्ली 110 002
श्रीमती इन्दु जैन, बैनेट कोलमेन एण्ड कं., बहादुर शाह जफर मार्ग, नई दिल्ली 110 002
जस्टिस के जयचन्द्र रेड्डी, चेयरमैन, भारतीय प्रेस परिषद्, फरीदकोट हाउस (भूतल), कापरनिकस मार्ग, नई दिल्ली
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श्री बाल पाटील, 54 पाटील एस्टेट, 278, जावजी दादाजी रोड, मुम्बई 400007
'जिनभाषित' परिवार भी समस्त दिगम्बर जैनों से यही अनुरोध करता है।
जुलाई 2003 जिनभाषित
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रतनचन्द्र जैन
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