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________________ गुरूवर को एक बड़े संघ के रूप में देख रहे हैं। जो देश के दूरस्थ | करके अपने फर्ज को निभाना। वर्तमान विश्वीकरण के युग में क्षेत्र में छोटे-छोटे उपसंघों के रूप में उपदेशना दे रहे हैं। | भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का ऐसा प्रभाव पड़ा है कि (3) तीर्थक्षेत्रों का जीर्णोद्धार - तीर्थक्षेत्र वे स्थान हैं पालक बच्चों को पालन, पोषण कर बड़ा करता है अपने जीवन जहाँ से तीर्थंकरों ने अपने को भव से पार उतारा है। ऐसी पवित्र की पूरी कमाई बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर खर्च कर देता है। इस भूमि पर पहुँचने से हमारा भव भी पार हो सकता है। संसार में उम्मीद में कि बच्चे बड़े होकर बुढ़ापे का सहारा बनेंगे, किन्तु मनुष्य को मानसिक शांति मंदिरों एवं तीर्थ स्थलों पर ही मिलती | बच्चे बड़े होकर अपेन फर्ज से मुँह मोड़ लेते हैं। परिणामस्वरूप है। अत: जरूरी है कि प्राचीन तीर्थस्थलों पर कंकर, पत्थर से बने पालकों को अपना बुढ़ापा वृद्धाश्रम में निकालना पड़ता है या स्वयं मंदिरों, जिनका एक निश्चित जीवन होता है, का जीर्णोद्धार किया जर्जर शरीर को ढोना पड़ता है। पालक एवं गुरु के प्रति बालक या जाये। मूर्तियों व मंदिरों की प्राण प्रतिष्ठा की जाय ताकि जनमानस | शिष्य का क्या कर्त्तव्य है इसकी अनुकरणीय मिशाल आचार्य में तीर्थक्षेत्र, मंदिर के प्रति श्रद्धा में कमी न आने पाये। धर्म और | विद्यासागर जी महाराज हैं। आचार्य श्री ने अपने गुरु ज्ञानसागर जी समाज एक दूसरे के पूरक हैं। समाज जहाँ रहेगी वहाँ मंदिर होगा | महाराज से दीक्षा लेकर अंत समय तक इतनी अधिक सेवा की अतः मंदिरों का निर्माण समय के साथ चलता रहेगा। जितना एक पुत्र अपने पिता की नहीं करता। आचार्य ज्ञानसागर (4)जैन साहित्य शोध - धर्म साहित्य सुलभ एवं सरल महाराज को बढ़ती उम्र में साइटिका का असहनीय दर्द हो गया भाषा में हो तभी व्यक्ति धर्म के मर्म को आसानी से समझ सकता था। उस स्थिति में वृद्ध शरीर को मुनि क्रियाओं के अनुकूल बनाये है। आचार्य श्री ने प्राचीन जैन साहित्य का सरल हिन्दी में अनुवाद रखने के अथक प्रयास शिष्य विद्यासागर जी महाराज ने किये जब करके साहित्य की लम्बी श्रृंखला उपलब्ध करायी है। इसका | तक कि गुरु ज्ञानसागर समाधिष्ट नहीं हो गये। यह आज की परिणाम है कि आम व्यक्ति समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, नवपीढ़ि के लिए परिवार से जुड़े रहने पालक एवं गुरु के जीवन समणसुक्तं आदि ग्रन्थों को आसानी से समझने लगे हैं। प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा एवं अनुवाद का परिणाम है कि जैनधर्म को इस प्रकार आचार्य गुरुवर के तीर्थ की गहराई अनंत है। अतिप्राचीन धर्म की श्रेणी में तर्कसंगत ढंग से रखा जाने लगा है। इस समुद्ररूपी सागर की एक बूंद भी यदि हम आत्मसात कर लें (5) नैतिक शिक्षा - भारतीय संस्कृति एवं साहित्य | तो हमारा उद्धार हो जायेगा। साक्षी है कि नवपीढ़ि को संस्कारित करना पालक एवं गुरु का प्रोफेसर कर्तव्य है और नवपीढ़ि का कर्त्तव्य होता है स्वावलंबित बनकर शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, सागर (म.प्र.) गुरु को सम्मान देकर एवं पालक की वृद्धावस्था में सेवासुश्रुषा कविता योगेन्द्र दिवाकर अन्तर्मन की लेखनी गुरु का लिये प्रकाश। सत्य अहर्निश कर रही, सम्यक आत्म विकास। गुरु प्रकाश स्तम्भ हैं, मोक्षमार्ग की ओर ज्योतिर्मय जिनसे हुई, ऊँकारमयी भोर ।। सतना (म.प्र.) 8 जुलाई 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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