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________________ डॉ. श्रेयांस कुमार जैन का आलेख "सम्यक्चारित्र की । है।" उन्होंने श्रुताभ्यास के अन्य उद्देश्य को बुद्धि का कौशल कहा उपादेयता" मननीय है। चारित्र ही धर्म रूप मोह, क्षोभ रहित | है। इस दृष्टि से सद् अभिप्राय पूर्वक श्रुताभ्यास ईष्ट है। आत्मा का परिणाम है, वह साम्यरूप है। इस पर विवाद हो ही | दया की पुकार, न्याय की तुला, चावल के पाँच दाने एवं नहीं सकता। चारित्र दर्शन पूर्वक होता है। इसमें ज्ञान की भूमिका | अन्य सामग्री मार्ग दर्शक है। सम्पादकीय, हमारी दो मुखी विचार अहम है जो भेदविज्ञान से लेकर आत्मसिद्धि तक उपादेय है।। अवधारणा को उजागर करता है। संस्थाएँ समय की उपज होती हैं शास्त्रों की जानकारी मात्र ज्ञान नहीं है। आत्मानुभवी को ज्ञानी उनका मूल्यांकन भी तटस्थ रूप से किया जाना अपेक्षित है। पृष्ठ कहा है। आचार्य आशाधर जी ने जैनागम के 'स्वाध्याय परमतप' 4 के अंतिम पद की टीप भट्टारक भ्रष्ट मुनियों की अवस्था है।' है के भाव को ग्रहण कर अध्यात्म रहस्य श्लोक 55 में कहा है कि | क्या यह नयी भट्टारकीय परम्परा का संकेत तो नहीं है, जो अधिक "शुद्ध स्वात्मा सर्व प्रथम अशुभ उपयोग के त्याग सहित श्रुताभ्यास | भयावह सिद्ध होगी। कृपया भट्टारक पुस्तक भिजवाने की कृपा के द्वारा शुभ उपयोग का आश्रय करता है, पश्चात् शुद्ध उपयोग में ही अधिकाधिक रहूँ, ऐसी भावना भाता है और उसे धारण करता डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल आमा करें। प्रवचनांश : आचार्य श्री विद्यासागर जी जो धर्म रूपी कील का सहारा लेकर चलता है वह संसार रूपी चक्की में पिसता नहीं है। धर्म एक ऐसी वस्तु है जिसके द्वारा जीव संतुष्ट हुए बिना रह नहीं सकता। इसके द्वारा सिंह जैसे हिंसक पशु भी संतुष्ट होकर अपना हिंसक स्वभाव छोड़ देते हैं। धर्म जिस किसी रूप में स्वीकार किया जाता है उतनी मात्रा में संतुष्टी अवश्य आती है। उपर्युक्त उद्गार संतश्रेष्ठ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कुण्डलपुर के विद्याभवन में अपने मंगल प्रवचनों में अभिव्यक्त किए। आचार्य श्री ने अपने मंगल उद्बोधन में आगे कहा कि संसार में धर्म के अलावा अन्य कोई सारभूत तत्व नहीं है। संसारी प्राणी राग-द्वेष की चक्की में रात-दिन पिसता रहता है जिस तरह दो पाटों के मध्य धान पिस जाती है। किंतु जो धान, चक्की की कील के सहारे चली चाती है, वह पिसने से बच जाती है। उसी तरह जो प्राणी धर्म रूपी कील का सहारा ले लेते हैं वे संसार रूपी चक्की में पिसने से बच जाते हैं। मनुष्य संसार में रहकर भी आत्म संतुष्टि एवं तत्व ज्ञान के आधार पर मुक्ति का अनुभव कर सकता है। उन्होंने कहा कि संसार में रहने वाला ग्रहस्थ विषय और कषाय की सामग्री से बच नहीं सकता, किंतु धर्म के साथ रहने से वह कील की भाँति बच सकता है। धर्मात्मा जीव प्राण जाय किंतु धर्म का मार्ग नहीं छोड़ता क्योंकि उसके भीतर यह दृढ़ श्रद्धान होता है कि आत्म संतुष्टि, आत्मा का कल्याण इसी मार्ग से प्राप्त होता है। ऐसे साधक आत्म विश्वास और आत्म संतुष्टि के दम पर ही गुफाओं, पहाड़ों और कंदराओं में जाकर तपस्या करते हैं। उन्हें यह पूर्ण विश्वास होता है कि जब परिणाम आवेगा तो इसकी विराटता का मूल्यांकन नहीं कर सकते हैं, वह उस परम पद मोक्ष को भी सहज उपलब्ध करा देवेगा। आचार्य श्री ने कहा कि आत्म संतुष्टि का काल निश्चित नहीं, सम्यग्दर्शन जीव को कभी भी प्रकट हो सकता है। प्रत्येक जीव अपना संवेदन स्वयं करता है उसकी आत्मानुभूति के बारे में कोई भागीदारी नहीं कर सकता। सुनील वेजीटेरियन प्रचार प्रभारी सदस्यों से विनम्र निवेदन अपना वर्तमान पता 'पिन कोड' सहित स्वच्छ लिपि में निम्नलिखित पते पर भेजने का कष्ट करें, ताकि आपको "जिनभाषित' पत्रिका नियमित रूप से ठीक समय पर पहुँच सके। सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी हरीपर्वत, आगरा (उ.प्र.) पिन कोड - 282 002 2 जुलाई 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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