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चाहिए।
प्रश्नकर्त्ता श्री राजेन्द्र कुमार जैन कोटा जिज्ञासा शास्त्रों में कहीं-कहीं पर अरहंत भगवान् को अष्टकर्म से रहित लिखा है। वह किस प्रकार समझना चाहिए ? समाधान आपके प्रश्न का समाधान श्री बोधपाहुड़ गाथा 29 में इस प्रकार किया है
दंसण अनंत णाणे मोक्खो णडुडुकम्मबंधेण । णिरुवमगुणमारुढो अरहंतो एरिसो होई ॥ 29 ॥ गाथार्थ - जिनके अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान विद्यमान हैं। आठों कर्मों का बंध नष्ट हो जाने से जिन्हें भाव मोक्ष प्राप्त हुआ है तथा जो अनुपम गुणों को प्राप्त हैं, ऐसे अर्हत होते हैं। विशेषार्थ पदार्थ की सत्ता मात्र का अवलोकन होना - दर्शन है और विशेषता के लिए विकल्प सहित जानना ज्ञान कहलाता है । ज्ञानावरण के क्षय से अनन्त ज्ञान और दर्शनावरण के क्षय से अनन्त दर्शन अरहंत भगवान् के प्रकट होते हैं। इन दोनों गुणों के रहते हुए उनके आठों कर्मों का बंध नष्ट हो जाने से भाव मोक्ष होता है ।
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प्रश्न- मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम् मोहनीय तथा ज्ञानावरण और अन्तराय के क्षय से केवलज्ञान होता है । उमास्वामी के इस वचन से सिद्ध है कि अरहन्त भगवान् के चार कर्म ही नष्ट हुए हैं उन्हें "नष्टानष्ट कर्म बन्धे" क्यों कहा जाता है ?
उत्तर - आपने ठीक कहा है, परन्तु जिस प्रकार सेनापति के नष्ट हो जाने पर शत्रु समूह के जीवित रहते हुए भी वह मृत के समान जान पड़ता है, उसी प्रकार सब कर्मों के मुख्यभूत मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर यद्यपि अरहन्त भगवान् के वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार अधातिया कर्म विद्यमान रहते हैं तथापि नाना प्रकार के फलोदय का अभाव होने से वे नष्ट हो गये, ऐसा कहा जाता है। क्योंकि विकार उत्पन्न होने वाले भाव का अभाव हो जाता है। उपमा रहित अनन्त चतुष्टय रूप गुणों को प्राप्त हुये अरहन्त अष्ट कर्म से रहित कहे जाते हैं। ऊपर कही विशेषताओं से युक्त पुरुष होता है तथा उपचार से उसे मुक्त ही कहते हैं।
जिज्ञासा उपशम सम्यक्त्व के काल में अनन्तानुबंधी की चार तथा दर्शनमोहनीय की तीन कुल 7 प्रकृतियाँ उदयावली में रहती हैं या नहीं ?
समाधान प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में दर्शनमोहनीय (मिध्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व एवं सम्यक् प्रकृति) तीनों प्रकृतियों का अन्तरकरण उपशम हो जाने से, ये तीनों प्रकृतियों उदयावली में नहीं रहती हैं। परन्तु अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन
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चार प्रकृतियों का अन्तरकरण उपशम संभव न होने के कारण, इनका उदय तो रहता है परन्तु उदय से एक समय पूर्व स्तिबुक संक्रमण होकर अन्य कषाय रूप उदय निरंतर होता रहता है। श्री लब्धिसार की टीका में पृष्ठ 83 पर श्री पं. रतनचन्द जी मुख्तार ने इस प्रकार लिखा है- "अनन्तानुबंधी चतुष्क का न तो अन्तर होता है और न ही उपशम होता है। हाँ, परिणामों की विशुद्धता के कारण प्रतिसमय स्तिबुक संक्रमण द्वारा अनन्तानुबन्धी कषाय का अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय रूप परिणमन होकर परमुख उदय होता रहता है (उपशम सम्यक्त्व के काल में)। फिर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में अधिक से अधिक 6 आवली तथा कम से कम समय शेष रहने पर परिणाम की विशुद्धि में हानि हो जावे तो अनन्तानुबंधी का स्तिबुक संक्रमण रुक जाता है और अनन्तानुबंधी के परमुख उदय के बजाय स्वमुख उदय आने के कारण प्रथमोपशम सम्यक्त्व की आसादना (विराधना) हो जाती है।"
जिज्ञासा उपशम श्रेणी चढ़ने के काल में निर्धाति और निकाचित कर्म प्रकृतियों का क्या होता है ?
समाधान- श्री लब्धिसार गाथा 226 में उपर्युक्त प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है
अणियट्टिस्सय पढमे अण्णड्ढिदिखंडपहुदिमारभइ । उपसामणा णिधत्ती णिकाचणा तत्थ वोच्छिण्णा ॥ 226 ॥ अर्थ- अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में अपूर्वकरण के अंत समय से और ही प्रमाण रखता हुआ स्थितिखण्ड आदि का प्रारंभ करता है और वहाँ ही समस्त कर्मों की उपशमकरण, निधत्तिकरण और निकाचनकरण की व्युच्छित्ती हो जाती है।
भावार्थ - उपशम श्रेणी चढ़ते हुए अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में ही सभी कर्मों में से जो कर्म पुंज अप्रशस्त उपशामना रूप हैं, जो कर्म पुंज निधत्ति रूप हैं और जो कर्म निकाचित रूप हैं, उन तीनों की व्युच्छित्तिकर वे कर्म पुंज क्रमशः उदीरणा के योग्य, संक्रमण तथा उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा के योग्य हो जाते हैं।
यहाँ यह भी जानने योग्य है कि उपशम श्रेणी चढ़ने वाला यही जीव, जब उपशम श्रेणी से उतरता है तब उपरोक्त कर्म प्रकृतियों का क्या होता है ? इस संबंध में श्री लब्धिसार गाथा 342 में इस प्रकार कहा है
उवसामणा णिधती णिकाचणुग्धाडिदाणि तत्येव । अर्थ-उपशम श्रेणी चढ़ते समय अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में जिन अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तिकरण और निकाचनाकरण इन तीनों की व्युच्छिती हो गई थी, वे उतरते समय जब वह जीव अपूर्वकरण में प्रवेश करता है तब उसके प्रथम
• जुलाई 2003 जिनभाषित 27
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