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समकालीन परिवेश में नारी-अस्मिता
डॉ. शशिप्रभा जैन
विधाता ने नारी को एक महत्वपूर्ण भार सोंपा है। सृष्टि के । स्थापित भी कर रही हैं। जो क्षेत्र कल तक केवल पुरुषों के क्षेत्र संचालन का किन्तु सृष्टि का ही आदि प्रश्न, अनादि कौतुहल, | माने जाते थे- बात चाहे खेल, शिक्षा, प्रशासन, कला, विज्ञान, सृष्टि की ही आदि शक्ति नारी क्या है ? उस की अस्मिता, उस का अनुसंधान की हो अथवा सामाजिक और राजनीतिक चेतना जगाने निजत्व, उस की पहचान आज भी एक ज्वलंत प्रश्न-चिन्ह है। की। कुछ एक विशिष्ट समझे जाने वाले क्षेत्रों में तो महिलाएँ किन्तु इस के साथ ही 21 वीं सदी में भारतीय नारी के निरन्तर | पुरुषों से भी आगे निकल गई हैं। निष्कर्षत: नारी चेतना जाग्रत हुई बढ़ते हुए कदम, जिसमें उस का अस्तित्व, उसकी अस्मिता एवं | है। नारी शक्ति सक्रिय हुई है। घर की चारदीवारी से बाहर निकल उस की अपनी विशिष्ट पहचान तो सिद्ध करती है। साथ ही इस तमाम बाधाओं के बाबजूद भी नई बुलन्दियों को छुआ है। अतः सत्य का भी उद्घाटन करती है कि समकालीन परिवेश में नारी उपग्रह हो या आकाश, आर्किटेक्चर हो या सेना, शासन हो या अस्मिता कितनी सकारात्मक, कितनी नकारात्मक, कितनी प्रकृत, । प्रशासन, राजनीति हो या सामाजिकता, व्यवसाय हो या योगशाला, कितनी विकृत और कितनी सार्थक एवं निरर्थक सिद्ध हुई है। मेडीकल हो या टेक्नोलॉजी, विज्ञान हो या गृह विज्ञान, मीडिया अतः दोनों ही पक्ष चिन्तनीय हैं।
हो या मॉडलिंग, शिक्षा हो या प्रशिक्षा, जूडो-कराटे हो या नृत्यकला भारत में महिलाओं की स्थिति प्राचीन काल से ही | विकास के सभी विविध कार्य क्षेत्रों में उसने अपनी संपूर्ण दक्षता भेदभावपूर्ण रही है। प्राचीन काल में स्त्रियों की दशा अत्यन्त | का परिचय देते हुए सम्मानपूर्वक आज अपने आप को प्रतिष्ठित दयनीय थी। मध्यकाल में और भी बद से बदतर होती गई। ही नहीं कर लिया है बल्कि निरन्तर उसके बढ़ते हुए कदम यह भारतीय परिवारों में नारी जहाँ माँ के रूप में करूणा, प्रेम, त्याग सिद्ध कर रहे हैं कि इक्कीसवीं सदी महिलाओं की अपनी सदी की देवी के रुप में प्रतिष्ठित हुई, वहाँ सामाजिक जीवन में मात्र होगी। एतदर्थ राष्ट्र के अर्धांग नारी सामाज ने अपने परिवारिक भोग्या ही रह गई। सच है, भारत विविधताओं का ही नहीं | दायित्व के साथ-साथ राष्ट्रीय कर्त्तव्य बोध, अनन्य देश-भक्ति, विषमताओं का भी देश है। कहने को तो हम आकाश की ऊँचाइयों | स्वधर्म, स्व-संस्कृति का स्वाभिमान जाग्रत कर देश के प्रति, को छू रहे हैं। चाँद पर अपने अस्तित्व का झंडा फहरा आये हैं समाज के प्रति समर्पण का भाव निर्मित कर एक रचनात्मक किन्तु मन और मस्तिष्क से हम अभी भी पिछड़े हुए हैं। स्वस्थ दिशा में अहर्निशि बढ़ती जा रही है। सरकारी स्तर पर भी
समय परिवर्तनशील है। कालचक्र कभी एक जगह रुकता | 'महिला वर्ष' मना कर देश ने महिलाओं का प्रगति-पथ प्रशस्त नहीं। युग बदला और यकीनन युग के बदलते हुए परिवेश में | किया है। आज प्रगतिशील महिला की चेतना का ज्वार इक्कीसवीं भारतीय महिलाओं की सोच भी बदली, जीवन के प्रति अवधारणा | सदी के शिलाखण्ड पर 'महिला सदी' का नाम स्वर्णाक्षरों में बदली। परिणामतः एक जबरदस्त बदलाव आया। उसने अपने । टंकित करने जा रहा है। शोषण के इतिहास को भली-भाँति समझा, तथ्यात्मक सत्य को हमारी संस्कृति इस तथ्य की ओर सदैव जागृत रही है कि अंगीकृत किया, परम्परागत दुर्बलताओं को पहचाना और अपने | स्त्रियों को मानवोचित सम्मान और पुरूषार्थ से मण्डित किया पतन के मूल कारण अशिक्षा को माना। अतः आज महिलाओं की | जाये और इसी के लिए नारी शक्ति को पारिवारिक, सामाजिक एवं समझ स्पष्ट हो गयी है कि यदि सामाजिक जीवन में अपने बजूद | देश की आधार शिला के रूप में स्मरण किया जाता रहा। किन्तु को कायम रखना है, अपनी अस्मिता को बनाये रखना है तो स्वतंत्र भारत में हुए विकास के प्रकाश से अन्धे नेत्रों ने नारी शक्ति समाज संचालन के वे सभी नुस्खे (सूत्र) जो पुरुषों की धरोहर | के महत्व को ओझल कर दिया तथा भौतिकता के मकड़जाल ने बन गये हैं, उन में उस को साझीदारी करनी होगी, सहभागिता नारी मन की कमजोरियों का अनुसंधान कर के उसे पुरूषदासता करनी होगी तभी समाज निर्माण में उन की सशक्त भूमिका का | के कारागार में डाल दिया। इस तरह नारी-उत्पीड़न का द्वार निर्वाह हो सकेगा। यही कारण है कि आज भारतीय महिलाएँ हर | उन्मुक्त हुआ और पुनः नारी प्रगति-अगति के मध्यवर्ती दुगर्ति के क्षेत्र में न केवल अपने कदम बढ़ा रही हैं, बल्कि वहाँ खुद को | त्रिकोण में विद्यमान हो गयी है। घर और बाहर दोनों जगह भीषण
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जुलाई 2003 जिनभाषित -
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