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________________ श्रावकाचार प्रस्तुति : सुशीला पाटनी श्रावक का अर्थ श्रावकाचार का तात्पर्य है- गृहस्थ का धर्म। श्रावक | धारण करता है। लज्जाशील होता है, अनुकूल आहार-विहार शब्द का सामान्य अर्थ है- सुनने वाला। जो गुरुओं के उपदेश | करने वाला होता है। सदाचार को अपने जीवन की निधि मानने को श्रद्धापूर्वक सुनता है। वह श्रावक है, श्रावक शब्द तीन वाले सत्पुरुषों की सेवा में सदा तत्पर रहता है। हिताहित अक्षरों के योग से बना है- श्र, व और क इसमें 'अ' श्रद्धा का, | विचार में दक्ष, जितेन्द्रीय और कृतज्ञ होता है। धर्म की विधि को 'व' विवेक का तथा 'क' कर्त्तव्य का प्रतीक है। इस प्रकार सदा सुनता है, उसका मन दया से द्रवीभूत रहता है तथा पापश्रावक का अर्थ करते हुए कहा गया है कि जो श्रद्धालु और भीरु होता है। उक्त चौदह विशेषताओं से भूषित व्यक्ति ही एक विवेकी होने के साथ-साथ कर्तव्यनिष्ठ हो, वह श्रावक है। आदर्श गृहस्थ की श्रेणी में समाविष्ट होता है। श्रावक के अर्थ में, उपासक, सागार, देश-विरत, अणुव्रती आदि रात्रि भोजन का त्याग अनेक शब्द आते हैं। गुरुओं की उपासना करने वाला होने से | रात्रि-भोजन का भी प्रत्येक गृहस्थ को त्याग करना उसे उपासक, आगार/घर सहित होने से सागार, गृही या गृहस्थ चाहिए। रात्रि में भोजन करने से त्रस हिंसा का दोष लगता है। तथा अणुव्रतधारी होने से अणुव्रती, देशव्रती या देशसंयत कहा रात्रि भोजन स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकर है। चिकित्सा जाता है। शास्त्रियों का अभिमत है कि कम से कम सोने के तीन घण्टे पूर्व पाक्षिक श्रावक तक भोजन कर लेना चाहिए। जो लोग रात्रि भोजन करते हैं वे जैन आचार शास्त्रानुसार एक आदर्श गृहस्थ वही है, जो | भोजन के तुरन्त बाद सो जाते हैं जिससे अनेक रोगों का जन्म न्यायपूर्वक आजीविका उपार्जन करता है। गुणी पुरुषों एवं गुणों | होता है। दूसरी बात यह कि सूर्य प्रकाश में केवल प्रकाश ही का सम्मान करता है। हितकारी और सत्य वाणी बोलता है। | नहीं होता, अपितु जीवन दायिनी शक्ति भी होती है। धर्म, अर्थ और काम रुप तीन पुरुषार्थों का परस्पर अविरोध से सेवन करता है। इन पुरुषार्थों के योग्य स्त्री, भवन आदि को आर. के. मार्बल्स लि., मदनगंज-किशनगढ़ आचार्य श्री विद्यासागर के सुभाषित सराग सम्यग्दर्शन के साथ चिन्तन का जन्म होता है किन्तु वीतराग सम्यग्दर्शन में चिंतन चेतन में लीन हो जाता है। सराग सम्यग्दर्शन में ज्ञान को सम्यक माना जाता है जबकि वीतराग सम्यग्दर्शन में ज्ञान स्थिर हो जाता है। जिस व्यक्ति में साधर्मी भाईयों के प्रति करुणा नहीं, वात्सल्य नहीं, कोई विनय नहीं वह मात्र सम्यग्दृष्टि होने का दंभ भर सकता है, सम्यग्दृष्टि नहीं बन सकता। सांसारिक अनेक पाप के कार्य करते हये भोग को निर्जरा का कारण कहना और भगवान् की पूजन दानादि क्रियाओं को मात्र बंध का कारण बतलाना यह सारा का सारा जैन सिद्धांत का अपलाप है। जो व्यक्ति बिल्कुल निर्विकार सम्यग्दृष्टि बन चुका है और जिस व्यक्ति की दृष्टि तत्व तक पहुँच गयी है, उसके सामने वह भोग सामग्री है ही नहीं, उसके सामने तो वह जड़ तत्व पड़ा है। उस व्यक्ति के लिये कहा गया है कि तू कहीं भी चला जा तेरे लिये सारा संसार ही निर्जरा का कारण बन जायेगा। जुलाई 2003 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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