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________________ ही अवस्थाओं में समभाव को नहीं छोड़ता है। दोनों ही अवस्थाएँ । पर्यंकासन, पदमासन आदि आसनों में बैठकर बैठक का नियम क्षणिक मानकर सम रहता है। मन में वैषम्य या विकार नहीं आने | भी कर लेंवे। चित्त में चंचलता न हो इसके लिए स्त्री, नपुंसक, देता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने सामायिक करने वाले के | पशु, बालक आदि से रहित, निरूपद्रवी एकांत जिन मंदिर, वन, चिंतन को बतलाया है: घर आदि स्थान में सामायिक करने के लिए व्रती बैठें क्योंकि उस ___ अशरणमशुभमनित्यं दुःख मनात्मानभावसामि भवम्। | समय शांत चित्त का होना आवश्यक है। गृहस्थ भी सामायिक के मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामायिके । | काल में आरम्भ, सर्वपरिगृह से विरत होने के कारण वस्त्र ढके अर्थात् सामायिक के समय श्रावक चिंतन करता है कि मुनि के समान माना गया है। जिस संसार में मैं रह रहा हूँ, वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, | संसार संबंधी मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को छोड़कर दुःख रूप है और मेरे आत्मस्वरूप से भिन्न है तथा मोक्ष इससे | यथासंभव प्रतिदिन त्रिसंध्या काल में सामायिक करने का विधान विपरीत स्वभाव वाला है। अर्थात् शरणरूप है, शुद्ध रूप है, नित्य | है। प्रथम संध्या का समय सुबह सूर्योदय के पहले उत्कृष्ट रूप से है, सुःख मय है और आत्मस्वरूप है। एक घंटा बारह मिनट से प्रारम्भ करके सूर्योदय के बाद में एक चिंतन की पात्रता की अपेक्षा आचार्यों ने सामायिक की घंटा बारह मिनट तक होता है। इसी प्रकार सायं समय में सूर्यास्त विधि और काल आदि का भी निर्धारण किया है जैसे सामान्य | के पूर्व एक घंटा बारह मिनट पहले से सामायिक आरम्भ करके गृहस्थ को सामायिक अभ्यास रूप क्रिया बतलाई है उसके शिक्षाव्रतों सूर्यास्त के बाद एक घंटा बारह मिनट तक करना चाहिए। दोपहर में सामायिक प्रथम शिक्षाव्रत है, जिसके अभ्यास से व्रती गृहस्थ दस बजकर अड़तालीस मिनट से प्रारम्भ करके एक बजकर आत्मविकास कर सकता है। गृहस्थ को प्रतिदिन सामायिक अवश्य बारह मिनट तक का समय सामायिक का उत्कृष्ट काल है। एक करना चाहिए। क्योंकि दिन में जो हिंसा आदि पाप क्रियाएँ होती | घंटा छत्तीस मिनट का काल मध्यम है और मात्र 48 मिनट का है, उनके फल से सुरक्षा और अहिंसा आदि व्रतों की पूर्णता होती काल जघन्य है। पूरे दिन में उक्त समय सहज, पुनीत, पावन माने है। इसीलिए आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने गहस्थ को प्रतिदिन गए हैं। यही कारण है कि तीर्थंकरों की दिव्यदेशना इन्हीं समयों में हुआ सामायिक करने की प्रशस्त प्रेरणा प्रदान की करती है। यह समय आत्म चिन्तन के लिए अत्यधिक उपयोगी है। सामायिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम्। उक्त सामायिक काल में ही सामायिक करते समय काष्ठ व्रतपञ्चक परिपूरण कारणमवधान युक्तेन॥ या पाषाण मूर्ति के समान निश्चल बैठे। इधर-उधर न देखें। पञ्चेन्द्रिय रत्नकरण्डक श्रावकाचार 101 संबंधी विषयाभिलाषाओं का परित्याग करें। चेतनाचेतन पदार्थों में आलस्य रहित होकर सावधानी के साथ पांचों व्रतों की रागद्वेष का त्याग कर समताभाव का आश्रय करें। नासाग्रदृष्टि पूर्णता करने के कारणभूत सामायिक का प्रतिदिन अभ्यास बढ़ाना रखकर परमात्मा के स्वरूप का चिंतवन, परमेष्ठी गुण स्मरण, चाहिए। द्वादशानुप्रेक्षा, षोडशकारणभावना, दशभक्ति, चतुर्विंशतिस्तवन, व्यापार आदि में व्यस्त रहने के कारण संसारी प्राणी उपयोग मैत्रीप्रमोद, कारूण्य, माध्यस्थ भावनाओं को पढ़ते विचारते हुए स्थिर नहीं रख पाते हैं, उन्हें चंचलता घेरे रहती है। चंचलता को सामायिक में आत्मनिरीक्षण करें। सामायिक प्रतिमा का धारक रोकने के लिए चित्त की स्थिरता आवश्यक है और चित्त की चार बार 3+3 आवर्त और चार प्रणाम करके यथाजात के समान स्थिरता के लिए सामायिक की वृद्धि करना भी आवश्यक है। निर्विकार बनकर खड्गासन या पद्मासन से बैठकर मन, वचन, जैसा कि कहा है काय शुद्ध करके तीनों संध्याओं में देव शास्त्रगुरु की वंदना और व्यापार वैमनस्याद्धिनिवृत्त्यामन्तरात्म विनिवृत्या। प्रतिक्रमण आदि भी करता है। श्रमण अपने आवश्यक के रूप में सामायिकं वध्नीयादुपवासे चैक भुक्ते वा॥ उक्त विधि अनुसार ही क्रिया विधि करते हैं। किन्तु द्रव्य, गुण, रत्नकरण्डक श्रावकाचार 100 पर्याय और आत्मस्वरूप का विशेष चिंतन करते हैं। उपवास अथवा एकाशन के दिन गृह व्यापार और मन | श्रावक और श्रमण दोनों ही शक्ति अनुसार सामायिक की व्यग्रता को दूर करके अन्तरात्मा में उत्पन्न होने वाले विकल्पों | विधि को अपने जीवन में प्रथम स्थान दें। इसी के द्वारा चतुर्गति की निवृत्ति के साथ सामायिक का अनुष्ठान करें। सामायिक शिक्षाव्रत | रूप भ्रमण नष्ट किया जा सकता है। चारित्र की प्राप्ति के लिए तीसरी सामायिक प्रतिमा के लिए अभ्यास रूप है इस शिक्षाव्रत में | सामायिक कारण हैं। चारित्र में भी सामायिक का प्रथम स्थान है, दिन में तीन बार सामायिक होना चाहिए। अगर इस प्रकार नहीं जो मुक्ति प्रदान करता है। बने तो कम से कम दिन में एक बार तो अवश्य ही होना चाहिए। | इस प्रकार निश्चत हुआ कि सामायिक श्रावक और श्रमण सामायिक करने के लिए उद्यत व्रती सबसे पहले केश | दोनों के लिए सभी दृष्टियों से कल्याणकारी है। शारीरिक और बंधन करे। मष्टि और वस्त्र में बंधन कर प्रतिज्ञा करें कि इनके | मानसिक स्वस्थता के साथ आत्मोपलब्धि का एकमात्र साधन है खलने तक मैं आत्मविचार या सामायिक करूंगा। उसी प्रकार | अतः इसका अभ्यास प्रतिक्षण जीवन में कार्यकारी है 22 जुलाई 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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