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________________ वर्णन किया जाता है, संयम लेने की विधि, पालन व रक्षण की । हुआ, कर्म पौद्गलिक हैं, कार्मण वर्गणाएँ सम्पूर्ण लोक में घनत्व विधि का कथन किया जाता है। श्रमण के चारित्र का कथन करने | से ठसाठस भरी हुई हैं, उन्हें किसी ने तैयार नहीं किया। द्रव्य वाले ग्रन्थों को आचाराङ्ग केअन्दर लिया है। श्रावकों के व्रतों का त्रैकालिक हुआ करता है, सत् रूप है, सत का कभी विनाश नहीं वर्णन करने वाले शास्त्रों को उपासकाध्ययन के अन्दर लिया गया | होता तथा असत् का कभी उत्पाद नहीं होता तो फिर कर्म को है। चरणानुयोग के अनेक ग्रन्थ हैं, - मूलाचार, मूलाराधना (भगवती किसने बनाया है। अरे भाई, व्यवहार से कहा जाता है, बनाया है आराधना), आचारसार, श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धि उपाय इत्यादि। परन्तु द्रव्य स्व शक्ति से परिणमन करता है, उस परिणमन में 4. द्रव्यानुयोग - आत्म तत्त्व, जीव की शुद्धाशुद्ध पर्यायों | कालादि द्रव्यों का निमित्त रहता है, कर्म जो बंधते हैं, वे कार्मण का कथन, नौ पदार्थ, पञ्चास्तिकाय, छ: द्रव्य, शुभ-अशुभ, शुद्ध वर्गणाएँ जीव ने नहीं बनाई हैं, इस अपेक्षा से जीव कर्म का कर्ता भावों का निश्चय-व्यवहार नय से जो वर्णन करता है। इस प्रकार नहीं है। जीव ने रागादिक भाव किये हैं उन भावों से कार्मण संक्षेप से जैनदर्शन का चारित्र पक्ष समझना । दर्शन पक्ष में जैनदर्शन | वर्गणाएँ कर्म रूप परिणत हुईं, इसलिये यह प्रकट है जीव तो अपनी विशेष योग्यता प्रकट करता है। रुढ़िवाद, अंधविश्वास का | रागादिक भावों का कर्ता है, कर्म का कर्त्ता नहीं। रागादिक भाव जैनदर्शन में कोई स्थान नहीं है। प्रत्येक बात तर्क, आगम पर कसी | कार्मण वर्गणाओं को कर्म रूप परिणत कराते हैं न कि बनाते हैं। हुई को ही स्वीकारता है। बाबा वाक्य के अनुसार नहीं मानता, निष्पन्न रूप कर्ता जीव कर्म का नहीं है, कर्मबन्ध रूप कर्ता जीव सबसे बड़ी बात, पर को अपना कर्ता तथा निज को पर का कर्ता ही है, बिना रागादिक भाव जीव के लिए कर्मबन्ध नहीं होता है। जैनदर्शन किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करता। अणु प्रमाण भी | अतः सुख-दुःख का कर्ता, चारों गतियों में भ्रमण का कर्ता, जीव उपादान रूप पर का कर्ता नहीं है निज भावों का कर्ता है, | संसार पर्याय, सिद्ध पर्याय का कर्ता जीव स्वयं ही है। यह सिद्धांत पद्गल कर्मों का भी कर्त्ता नहीं है। आत्मा चैतन्य जड़ है, तो फिर | जैनदर्शन का मौलिक सिद्धान्त है। जैनदर्शन वेदवादी दर्शनों की चैतन्य से जड़ धर्म कैसे किया जा सकता है। चैतन्य तो शुद्धाशुद्ध भांति ईश्वर को कर्त्ता स्वीकार नहीं करता। यदि ईश्वर आदि पर चैतन्य भावों का ही कर्ता है । व्यवहारनय से पुद्गल रूप कर्मों का के कर्ता हो जायेंगे तो फिर निज के शुभ-अशुभ कर्म व्यर्थ हो कर्ता कहा है। अन्य रथ, घट,पट आदि का भी कर्ता कहा है, वह | जायेंगे। अतः स्पष्ट है जैनदर्शन आत्मपुरुषार्थवादी दर्शन है, निज निमित्त रूप कर्ता समझना न कि उपादान रूप कर्ता । तात्पर्य यह | आत्मा ही सम्यक् पुरुषार्थ करके परमात्म अवस्था को प्राप्त होती है। बोध कथा गड़रिये की भक्ति एक पंडित जी बड़े धर्मात्मा थे। प्रातः भोर में ही नदी में | दूसरे दिन पंडित जी के आने से पहिले वह गड़रिया डुबकी लगाते और पूर्व की ओर मुँह करके खड़े होकर प्रतिदिन | आया और नदी में कूद गया तथा डूबा रहा कुछ देर पानी में। नदी के किनारे जल देते थे। पश्चात् नदी में गोता लगाकर नदी | देवता उसकी भक्ति और विश्वास पर प्रसन्न हुए। वे उसे दर्शन से बाहर निकल आते थे। देने आ गये। उन्होंने कहा-मांग वरदान, क्या माँगता है ? गड़रिया एक गड़रिया जो रोज उन्हें ऐसा करते हुए देखता था, | आनन्द से भरकर बोला – 'दर्शन हो गये प्रभु के अब कोई माँग एक दिन उसने पंडित जी से पूछा-महाराज! यह गोता क्यों नहीं।' प्रभु के दर्शन के बाद कोई माँग शेष नहीं रहती। लगाते हो पानी में? पंडित जी बोले तू क्या जाने गड़रिये। ऐसा आशय यह है कि भक्ति और विश्वास के साथ ऐसे ही करने से भगवान् के दर्शन होते हैं।' अचरज में पड़ गया और अपने अन्दर गहरे उतरना होगा तभी आत्मा का दर्शन होगा। मन ही मन बोला- भगवान् के दर्शन, ओह ! आपका जीवन भक्ति के लिए चाहिए विश्वास, समर्पण और निष्कामवृत्ति । जो धन्य है। मैं भी करके देखूगा और इतना कहकर गड़रिया चला गहराई में गोता लगाते हैं। वे भक्त शारीरिक कष्टों से नहीं डरते। गया। 'विद्या-कथाकुञ्ज' -जुलाई 2003 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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