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________________ जैनदर्शन की मौलिकता मुनि श्री विशुद्धसागर जी जैनदर्शन विश्व के दर्शनों में अपनी एक विशेष अहं । करते हैं, सचित्त फल-पुष्प का उपयोग नहीं करते। वर्तमान में भूमिका रखता है। जहाँ विभिन्न दर्शन शास्त्र पूर्वापर विरोध से | दोनों परम्पराएँ अविसंवाद रूप से चल रही हैं, परस्पर वात्सल्य युक्त दृष्टिगोचर होते हैं, वहाँ जैनदर्शन उक्त दोषों से रिक्त है, | भाव है, अपनी-अपनी पद्धति से पूजन आदि करते हैं। दोनों ही एकान्त दृष्टि का निरसन करने वाला स्याद्वाद, अनेकान्त सिद्धान्त परंपराओं के साधु संघ भी हैं परन्तु मूलोत्तर गुण दोनों के समान के माध्यम से विश्व में विख्यात दर्शन है। सर्वज्ञवाणी को मानने ही होते हैं। वैसे मेरी धारणा यह है पूजन विधि आदि श्रावकों की वाला है। जैनदर्शन सामान्य व्यक्ति की बात को स्वीकार नहीं | क्रियाएँ हैं, जहाँ जिस विधि से पूजापाठ चलता हो उसे चलने करता। जब तक आत्मा अरहत् अवस्था को प्राप्त नहीं होती तब | दिया जाय कोई क्रियाकाण्ड, कोई धर्म नहीं। परमार्थ भूत तक उसे क्षद्मस्थ अवस्था कहते हैं। केवलज्ञान होने पर अरहन्त आत्मविशुद्धि हेतु परिणामों की निर्मलता के लिए, क्रियाकाण्ड अवस्था प्रकट होती है। केवली भगवान् की वाणी को ही रूप धर्म का पालन किया जाता है। अशुभ भावों से बचने के लिए सर्वज्ञवाणी कहते हैं। सर्वज्ञवाणी के आधार से जो भी अन्य जिसके माध्यम से सम्यक्त्व व चारित्र की हानि न होती हो, उस आचार्य भगवन्त कहते हैं वह बात भी प्रमाणित मानी जाती है, क्रिया को जैनाचार्यों ने स्वीकार किया है। यदि क्रियाकाण्डों में परन्तु स्वतंत्र चिन्तवन जैनदर्शन स्वीकार नहीं करता। वाणी में उलझकर निज परिणामों की विशुद्धि समाप्त होती हो तो वह क्रिया स्याद्वाद, दृष्टि में अनेकान्त, चर्या में अहिंसा जैनदर्शन के मूल पुण्य बन्ध का भी कारण नहीं हो सकेगी। अतः श्रमणों की चर्या, प्राण हैं । जैन आगम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग श्रावकों से भिन्न है, श्रमणाचार्य को आचाराङ्ग में जो विधि कही कहते हैं, ये ही चार अनुयोग जैनदर्शन के चार वेद हैं-प्रथमानुयोग, गई है, उसी का पालन करना चाहिए, पंथ परंपराओं से दूर रहना करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग। ये चारों ही अनुयोग अपने- चाहिए। साधु किसी भी पंथ का नहीं होता, वह तो प्रत्येक प्राणी अपने विषय में पूर्ण हैं। इन चारों ही अनुयोगों में 12 अंग 14 पूर्व | मात्र के कल्याण की भावना रखता है फिर वह क्या विशेष बनकर रूप वर्णन रहता है। दिगम्बर आम्नाय में, वर्तमान में द्वादशांग का रह सकता है? निर्विकल्प आत्मसाधना में रत योगी का मात्र स्वअंश तो अभी विद्यमान है परन्तु पूर्ण रूपेण नहीं। कालदोष से पर कल्याण की भावना के साथ मात्र सामान्यजनों से धर्मोपदेश श्रुतधारियों का विच्छेद मानते हैं। बल्कि श्वेताम्बर आम्नाय ने आदि तक ही सम्बंध रहता है, विशेष धार्मिक अनुष्ठानों में आशीर्वाद अभी 12 अंग स्वीकार किये हैं, जो कि संकलित हैं। जो कुछ मात्र देते हैं, संचालन से दूर रहते हैं। मठ, मंदिरों के विवाद व मूलवाणी से मृदुता रखते हैं, दिगम्बर इन्हें स्वीकार नहीं करते, अन्य सामाजिक विवादों को आत्मध्यान में बाधक मानकर उन उनका सोचना वर्तमान में श्रुत द्वादशांग रूप नहीं, अंश मात्र ही सब से पृथक् रहते हैं। ये जैन साधु की सामान्यत: चर्या रहती है। है,जो कुछ श्वेताम्बर मानते हैं वह उनके स्वतंत्र विचार, आचार ध्यान-अध्ययन में रत रहते हैं। जैनदर्शन के.. सम्बंधी प्रथा, कुछ सिद्धान्त में भी भेद हैं। दोनों पक्षों की उपासना चारवेद विधि व साधना विधि भी पृथक है। पाँच सूत्रों को दोनों ही | 1.प्रथमानुयोग-जिन आगमों में वेसठ शलाका महापुरुषों स्वीकारते हैं। अन्तिम सूत्र पर विशेष भेद है। दिगम्बर साधु नग्न | के चारित्र का चित्रण किया जाता है वे पुराण कहलाते हैं। एक रहते हैं, उनकी दृष्टि में तिल तुष मात्र परिग्रह अर्थात् एक धागा | पात्र विशेष का वर्णन किया जाता है वह चारित्र कहलाता है। भी मुमुक्षु जीव के लिए मोक्ष प्राप्ति में बाधक कारण है। जबकि चारित्र, पुराण, कथानक, इतिहास वर्णन प्रथमानुयोग में होता है। श्वेताम्बर मत वाले सवस्त्रधारी को मोक्ष स्वीकारते हैं । दिगम्बर इसमें पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, आदिपुराण, उत्तरपुराण आदि ग्रन्थ स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति नहीं मानते जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय आते हैं। इसी बात को मूल सिद्धान्त स्वीकार कर बैठा है। दिगम्बरों में 2. करणानुयोग- कर्म प्रकृतियों का, आत्मा के परिणामों मूलतः कोई भेद नहीं है फिर भी काल दोष से वर्तमान में दो का तथा लोक की ऊँचाई, लम्बाई, चौड़ाई आदि का वर्णन होता परंपराएँ अविसंवाद रूप से चल रही हैं। प्रथम बीस पंथ, द्वितीय | है, जिससे उसे करणानुयोग कहते हैं। इसे गणितानुयोग व तेरहपंथ । इन दोनों में आगम ग्रन्थ भिन्न नहीं हैं, सिद्धान्त, आचार लोकानुयोग भी कहते हैं। इस अनुयोग में त्रिलोकसार, सभी समान हैं, परन्तु उपासना विधि में अन्तर है। पूजन में तिलोयपण्णति, गोम्मटसार, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लोकविभाग बीसपंथी हरे फल-पुष्प का उपयोग करते हैं, पञ्चामृताभिषेक | इत्यादि ग्रन्थ आते हैं। करते हैं। परन्तु तेरह पंथी सामान्य शुद्ध, प्रासुक जल से अभिषेक 3. चरणानुयोग - जिसमें श्रमण, श्रावक के आचार का 12 जुलाई 2003 जिनभाषित | 3. चरणानुस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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