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भी होता है । इसीलिए उसके कर्मबन्ध होता है तो वह सम्यग्दृष्टि होता है, सम्यग्ज्ञानी होता है और सम्यक् चारित्रवान् होता है, उस समय कर्म का बंध नहीं होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द के कथन 'जब तक यह छद्ममस्थ जीव बाह्य वस्तुओं के संबंध में संकल्प विकल्प करता है, तब तक उसके हृदय में आत्मा के विषय का ज्ञान नहीं होता है अतः तभी तक वह जीव शुभ और अशुभव जाति के कर्म भी करता है।'
अनन्तज्ञान सम्पन्न आत्मा को शुभाशुभ प्रवृत्ति वाला नहीं जान सकता है जो आत्मोपलब्धि वाला है, वही सम्यग्दृष्टि है आचार्य ज्ञानसागर पात्र विवक्षा से सम्यग्दर्शन का कितना स्पष्ट वर्णन करते है' आचार्य श्री ने यहाँ आत्मोपलब्धि की बात कही है' वह आत्मोपलब्धि तीन प्रकार की है
(1) आगमिक आत्मोपलब्धि ( 2 ) मानसिक आत्मोपलब्धि (3) केवलात्मोपलब्धि ।
गुरु की वाणी में आत्मा का स्वरूप सुनकर उस पर विश्वास ले आना यह आगमिक आत्मोपलब्धि है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप को मन से स्वीकार करना अर्थात् मन को तदनुकूल परिणाम लेना यह मानसिक आत्मोपलब्धि है । (3) केवल ज्ञान हो जाने पर प्रत्यक्ष रूप से आत्मा की प्राप्ति यह केवलात्मोपलब्धि है। उनमें से केवलात्मोपलब्धि की बात तो अपूर्व है, वह तो परिणाम स्वरूप एवं ध्येय रूप है ही, परन्तु यहाँ शेष केवलात्मोपलब्धियों में से मानसिक आत्मोपलब्धि की बात है, जहाँ यह श्रद्धा के साथ आचरण भी तदनुकूल होता है अर्थात् जैसे करनी वैसी भरती की बात है। जहाँ पर श्रद्धा के साथ साथ मानसिक आत्मोपलब्धि के समय स्वयं में भी हर्ष-विषादादि विकारभावों का अभाव होता है, अतः वहाँ शुभ या अशुभ किसी प्रकार के नूतन कर्मबंध का सद्भाव नहीं होता। अतः व्रती महर्षियों को स्वीकार्य है तथा उसी का इस अध्याय प्रकरण में संग्रहण एवं उसकी मानसिक आत्मोपलब्धि वाले को सम्यग्दृष्टि ज्ञानी निर्बन्ध आदि रूप से कहा गया है। जहाँ आगमिक आत्मोपलब्धि की बात है, वहाँ पर शुद्धात्मा के विषय का श्रद्धानी होता है किनतु आचरण तदनुकूल न होकर उससे उलटा होता है अर्थात् उसे यह विश्वास तो है कि आत्मा का स्वरूप हर्ष-विषादादि करना नहीं हैं किनतु स्वयं हर्ष-विषादि को लिए हुए रहता है और करता रहता है। इस प्रकार 'कथनी और करनी' वाली कहावत को चरितार्थ करने वाला होने से उसे इस अध्यात्म की शैली के ग्रन्थ में सम्यग्दृष्टि आदि न कहर मिथ्यादृष्टि आदि न कहकर मिथ्यादृष्टि कहा गया है। आगमिक लोग शुद्धात्मा को श्रद्धामात्र से ही सम्यग्दृष्टिपना मानते हैं क्योंकि उनकी विचारधारा यह है कि इसके शुद्धात्मा होने रूप आचरण भले ही आज न सही किनतु शुद्धात्मा की श्रद्धा तो इसके भी जगी है अत: संग्रहकर्त्ता के रूप में यह भी समयग्दृष्टि ही है।
आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज ने शंकास्पद स्थलों को अत्यन्त सरल रूप से स्पष्ट किया है तथा अव्रतरूप प्रवृत्ति करने से
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मार्च 2003 जिनभाषित
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पाप बंध और व्रतरूप सदवस्था में प्रवृत्ति करने से पुण्यबंध का 275 एवं 276 गाथाओं के भाव का स्पष्टीकरण- प्रश्नोत्तर के रूप में किया है।
शंका- पहले तो आचार्य श्री बतला आये हैं कि मात्र सम्यग्दर्शन होने पर ही किसी प्रकार का बंध नहीं होता और यहाँ कहा जा रहा है कि महाव्रत अवस्था में पुण्यबंध होता है, सो कुछ समझ में नहीं आया।
समाधान- हे भाई, जहाँ आचार्यश्री ने सम्यग्दृष्टि का निर्वन्ध कहा है, वहाँ केवल वीतराग सम्यग्दृष्टि को लेकर कहा है जैसा कि चत्तारिविपावे" इत्यादि गाथा से स्पष्ट है, शेष अविरतसम्यग्दृष्टि आदि के बंध उनके रागानुसार होता ही है क्योंकि राग ही बन्ध का कारण है ।
शंका- आपने कहा सो ठीक परन्तु महाव्रतों से भी पुण्य बंध होता है यह कैसे? क्योंकि फिर जो बन्ध नहीं करना चाहता, वह व्रत छोड़ दें?
उत्तर- हे भाई महाव्रतों के दो रूप होते है (1) सत्यप्रवृत्तिरूप (2) निवृत्तिरूप जैसे कि हिंसा करना या किसी को भी कष्ट देना यह पाप है, अशुभ बन्ध का कारण है, किन्तु हिंसा नहीं करना अर्थात् सभी के सुखी होने की भावना करना यह सत्प्रवृत्तिरूप महाव्रत है। यह पुण्यबंध करने वाला है और इसी का सम्पन्न रूप किसी से भी डरने डराने रूप भयसंज्ञा से रहित स्वयं निर्णय होना यह पुण्य और पाप इन दोनों से भी दूर रहने वाला है। इसी प्रकार झूठ बोलना पाप, सत्य बोलना पुण्य किनतु सर्वथा नहीं बोलना अर्थात् मौन रहना सो पुण्य और पाप इन दोनों से भी रहित । किसी की भी बिना दी हुई वस्तु भेजन आदि में लेना सो चोरी- पाप और उसका त्याग किन्तु श्रावक के द्वारा भक्ति पूर्वक उचित रूप से दिया शुद्ध आहार ग्रण करना सो पुण्य और आहार संज्ञा से रहित होना सो पुण्य व पाप इन दोनों से भी रहित । व्यभिचार तो पाप तथा स्त्रीत्यागरूप ब्रह्मचर्य सो पुण्य किन्तु मैथुन संज्ञा से रहित होना यह पुण्य और पाप से रहित । इसी प्रकार परिग्रह पाप, परिग्रह त्याग पुण्य किनतु परिग्रह संज्ञा का नहीं होना सो शुद्ध रूप इस प्रकार महाव्रतों का पूर्व प्रारम्भात्मरूप शुभ किन्तु उन्हीं का ही अपर-रूप जो कि पूर्णतया उदासीनता मय एवं चारों प्रकार की संज्ञाओं से भी रहित होता है, वह शुद्ध अतः बन्ध कर होता है।
उक्त अशुभ-शुभ का का विशेषार्थ के माध्यम से आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने स्पष्टीकरण किया। इतना सरल ढंग समझाने का बिरलजनों का ही पाया जाता है। उसी प्रकार के विशेषार्थों के द्वारा आचार्य श्री ने अध्यात्म के गूढ से गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित किया है, जिससे समयसार तात्पर्यवृत्ति प्रत्येक अध्यात्मक जिज्ञासु के लिये अति उपयोगी हो गयी है।
सम्प्रति कुछ कदाग्रही जन गृहस्थावस्था में वीतरागसम्यग्दृष्टि बने हुए हैं उन लोगों की भ्रान्त धारणाओं के उन्मूलन
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