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________________ के लिए आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज द्वारा लिखित विशेषार्थ पूर्ण समर्थ हैं क्योंकि आचार्यश्री ने तात्पर्यवृत्ति को पूर्ण आत्सात करके ही विशेषार्थों के माध्यम से विषयों का स्पष्टीकरण किया है । आवाधिकार (184185) में आचार्य श्री जयसेन ने वीतरागसम्यग्दृष्टि के अधिकारी का विशेष स्पष्टीकरण किया है। तात्पर्यवृत्ति में जगह जगह पर परिलक्षित होता है। क्वचित् कदाचित् स्थानों पर तात्वर्यवृत्ति में गद्य की कृत्रिमता भी देखने को मिलती है फिर भी अभिव्यक्ति की धारा अति प्रबल है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि तो कवि हृदय हैं। इनके पद्य भाग की अपेक्षा तात्पर्यवृत्ति का गद्य अत्यन्त सरल सर्वजन बोध्य है। वस्तुत: जयसेन स्वामी ने गद्य में विशिष्टता प्राप्त की है। इन्होंने दार्शनिक विषय वस्तु के उपस्थान के साथ-साथ शाब्दिक स्पष्टीकरण पर विशेष ध्यान दिया है। तात्पर्ववृत्ति ही वस्तुतः कुन्दकुन्द स्वामी के अभिप्रायों को स्फुट करने में सक्षम है क्योंकि जयसेन स्वामी की भाषा सरल और सहानुभूतिपूर्ण है और उनका प्रयास रहा है कि विषय का पूर्ण स्पष्टीकरण हो जिससे सामान्य बुद्धिशील भी विषय का परिज्ञान प्राप्त कर सके। सरलतम संस्कृत में लिखते हुए प्रयोजनभूत अर्थ का उद्घाटित करना उनकी प्रतिभा का वैशिष्ट्य है। उन्होंने व्याकरण सम्बन्धी कठोरता की उपेक्षा की है। तात्पर्यवृत्ति में उद्धरणों की भी बहुलता है। उद्धरणों से प्रमाणिकता पुष्ट होती है। प्रसंग प्राप्त उद्धरण प्रस्तुति आचार्य जयसेन की नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा की परिचायिका है। जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति की महत्त्वपूर्ण स्वतंत्र भेदों की सुरक्षित रखना है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों की सुरक्षा तात्पर्यवृत्ति के माध्यम से ही है। आचार्य कुन्दकुन्द का परिचय कराने वाले आचार्य जयसेन ही हैं इनकी आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के प्रति अगाध भक्ति अनुकरणीय है। आचार्य जयसेन के पूर्व एक सहस्त्र वर्ष आचार्य कुन्दकुन्द के नाम से अपरिचित रहने वाले अध्यात्म जगत् के ऊपर जयसेनाचार्य का महान् उपकार है कि उन्होंने अध्यात्मक विद्या के अधिष्ठाता आचार्य श्री कुन्दकुन्द का परिचय कराया। अध्यात्मक विद्या रसिक समाज को समयसार की तात्पर्यवृत्ति विषय वस्तु को समझने में अत्यधिक सहायक हैं इसलिए प्रत्येक अध्यात्मविद्या एवं दर्शनशास्त्र के अध्येता कां इसका अध्ययन अति आवश्यक है। आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज ने रूपान्तर और विशेषार्थ के द्वारा मण्डित कर श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य की सर्वोच्च कृति समयसार पर आचार्य श्री जयसेन लिखित तात्पर्यवृत्ति को जन-जन के लिए ग्राह्य बना दिया है। समयसार तात्पर्यवृत्ति के बिना समससार के रहस्य को पाना अशक्य ही है। अतः प्रत्येक आत्मतत्त्व जिज्ञासु को आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज द्वारा लिखित विशेषार्थ सहित समयसार तात्पर्ववृत्ति को अपने स्वाध्याय का विषय बनाना अनिवार्य है। Jain Education International 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 'समयो खलु णिम्मलो अप्पा' रयणसार गा. 153 जयधवल पु. पृ. 357 समयसार पृ. 3 ( आचार्य श्री ज्ञानसागर कृत टीका) समयसार पृ. 16 तात्पर्यवृत्ति टीका ( आ. श्री ज्ञानसागर कृत प्रथमावृत्ति) वही पृष्ठ 39 समयसार गा. 12 आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका । अध्यात्मक अमृतकलश प्र. पृ. समयसार तात्पर्यवृत्ति निर्जरा अधिकार पृ. 196 ( आ. श्री ज्ञानसागर कृत टीका प्रथमावृत्ति) प्रवचनसार एक अध्ययन (हिन्दी रूपान्तर) पृ. 196 उद्धृत समयसार पूर्वार्द्ध आर्यिका ज्ञानमती-समयसार एक अध्ययन पृ. 8 समयसार पृष्ठ 288 ( आ. श्री ज्ञानसागर कृत टीका प्रथमावृत्ति ) आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्ष हेतुं कालस्य निर्गमम् । वाञ्छतां धनिनामिष्टं जीवितात्सुतरां धनम् ॥ भावार्थ- काल का बीतना, आयुक्षय तथा धनवृद्धि के कारण हैं। लोभी व्यक्ति चाहता है कि जितना काल बीतेगा उतनी ही ब्याज की वृद्धि होगी किन्तु वह यह नहीं समझता है कि उसका जीवन घट जायेगा, क्योंकि उसे जीवन से ज्यादा धन इष्ट है । उपाचार्य ( रीडर ) संस्कृत विभाग, दिगम्बर जैन कॉलेज, बढ़त न काकतालीयमिदं कथंचित्कलेशक्षयान्मानुषजन्म लया। युक्तः प्रमादः स्वहिते विधातुः, संसारवृत्तांतविदा नरेण ॥ भावार्थ- यह मानव बड़े क्लेश भोगने के बाद कर्मोदय के मन्द होने पर किसी तरह काक तालीय न्याय से प्राप्त हुआ है। अतः संसार के प्रकरण को जानने वाले मनुष्य को अपने हित में आलस नहीं करना चाहिये। For Private & Personal Use Only मार्च 2003 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org
SR No.524271
Book TitleJinabhashita 2003 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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