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________________ पण्डित जी जगमोहन लाल जी ने अविरतसमयग्दृष्टि को भी ज्ञानी । उक्त कथनों के आधार पर ही डॉ. ए.एन. उपाध्य जैसे और अबन्धक स्वीकार किया है। समयसार की गाथाओं में जहाँ | मनीपी ने यहाँ तक लिखा है "समयसार को गृहस्थों द्वारा पढ़ा भी सम्यग्दृष्टि अथवा जानी पद आता है वहाँ तात्पर्यवृत्ति में तो जाना तक जित है, क्योंकि ग्रन्थ में भेदविज्ञान जैसे आध्यात्मिक वीतरागसमयग्दृष्टि को स्वीकार किया गया है प्रायः आचार्य श्री | प्रकरण मुख्यत: चर्चित किये गये हैं, विवंचन शुद्ध निश्चयनय से अमृतचन्द्रसूरि ने भी वीतरागसम्यग्दृष्टि अर्थ ग्रहण किया है जैसे- किया गया है और व्यवहारनय को मात्र संभावनाओं के सुधार हेतु 'णस्थि दु आसव बन्धो सम्मादिट्टिस्स आसवणिरोहो।' अर्थात् | लिखा है। अंतत: निश्चयनय में दिये गये आध्यात्मिक कथन उन सम्यग्दृष्टि के आस्रवत बंध नहीं है, प्रत्युत आस्रव का निरोध है। ग्रहस्थों को सामाजिक और नैतिक रूप से हानिकारक हो सकते आस्रव का निरोध राग द्वेष मोह से रहित जीव को ही संभव है है. जो आध्यात्मिक अनुशासन से प्रायः पूर्णतः शृन्य हैं।" अत: दोनों ही आचार्यों को वस्तुत: समयसार में वीतराग सम्यग्दृष्टि आचार्य जयसेन स्वामी ने समयसार गाथाओं में वर्णित इष्ट है। सम्यग्दृष्टि को वीतरागचारित्र वाला मुनि ही स्वीकार किया है। उक्त 179 नं. की गाथा का विशेषार्थ लिखकर आचार्य श्री तात्यर्यवृनि में गुणस्थान विवक्षा की प्रधानता है किन्तु आचार्य ज्ञानसागर जी ने यथार्थता को उपस्थित किया है वे लिखते हैं- अमृतचन्द्रहरि की कहीं भी उपेक्षा न कर उन्हीं का अनुगमन "ज्ञान शब्द का अर्थ दो प्रकार से किया जा सकता है एक तो यथा | करते हुए प्राय: जयसेनाचार्य लिखते हैं। समससार गाथा संख्या वस्थितमर्थं जानातीति ज्ञानम्, दूसरा आत्मानं जानाति | 306. 307 की टीका में श्री अमृतचन्द्रहरि ने अतिक्रमण आदि अनुभवतीति ज्ञानम्। द्वितीय अर्थ के अनुसार तो समाधिकाल में को अमतकम्भ कहा है, सो तृतीय भूमि में अर्थात् शुद्धोपयोग में ज्ञान जब तक अनुभव करता रहता है, तब तक वह ज्ञान कहा जा | कहा है 'तृतीयभमिस्तु स्वयं शुद्धात्मतिसिद्धिरूपत्वेन' अर्थात् सकता है। ध्यान समाधि से जहाँ च्युत हुआ कि वह अज्ञान कोटि अतिक्रमण प्रतिक्रमण से परे जो अप्रतिक्रमणरूप तृतीय भूमि में आ जाता है और बन्ध भी करने लग जाता है । तात्ययंवृत्ति और | है, वह स्वयं शुद्धात्मा की सिद्धिरूप है। आत्मख्याति दोनों ही टीकाओं के अनुसार चतुर्थ गुणस्थानवर्ती इसी प्रकरण में जयसेनाचार्य का कथन भी दृष्टव्य है जीव का ज्ञान भी इस ज्ञान शब्द से लिया जा सकता है क्योंकि वह | 'मरागचारित्र लक्षण शुभोपयोग की अपेक्षा से ये ही निश्चय भी जीवादि नव पदार्थों का यथार्थज्ञान रखता है किन्तु इस अर्थ के प्रतिक्रमण, निश्चय प्रतिसरण आदि कहलायेंगे क्योंकि प्रतिक्रमण अनुसार गाथा का जो अर्थ यहाँ खीच लिया गया है, वह कुछ | आदि शुभापयोग हैं। ये सब सविकल्प अवस्था में अमृतकुम्भ हैं खींच कर लिया हुआ सा प्रतीत होता है जिसका समर्थन आत्मख्याति । किनत परमोपेक्षासंयमरूप निर्विकल्प अवस्था में विपकुम्भ हैं। और तात्पर्यवृत्ति के अन्य स्थानों से नहीं होता है। स्वयं जयसनाचार्य वहाँ तो अप्रतिक्रमण अर्थात् निश्चय प्रतिक्रमण आदि ही अमृतकुम्भ ने स्थान स्थान पर यही लिखकर बताया है कि इस ग्रंथ में जो वर्णन है. वह गृहस्थ सम्यग्दृष्टि को लेकर नहीं किन्तु वीतराग जयसनाचार्य अमृतचन्द्राचार्य का अनुसरण प्राय: अवश्य (त्यागी) सम्यादृष्टि को लेकर किया है। करते हैं किन्तु जहाँ भी आत्मख्याति में तत्त्व का सामान्य प्रतिपादन इस प्रकरण में जयसेनाचार्य के शब्दों को देखा जा सकता हुआ है, वहाँ उसका विशेष स्पष्टीकरण आचार्य जयसेन ने अवश्य हैं. 'अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यग्दृष्टय़हणं यस्तु चतुर्थगण । किया है। पात्र की दृष्टि से भी कथन करके टीका का प्रत्येक स्थानवी सरागसम्यग्दृष्टिस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणम्' अर्थात् इस अध्येता की ग्राह्या बना दी है। ग्रन्थ में वास्तव में वीतरागसम्यग्दृष्टि का ग्रहण है, चतुर्थगुणस्थानवी तात्पर्यवृत्ति में जीव के भावों की विशिष्टता का सभ्यक सरागसम्यग्दृष्टि का ग्रहण तो गौण रूप से तथा मिथ्यादृष्टि की प्रकारण चित्रण किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अध्यवसान भाव अपेक्षा अवितरसम्यग्दृष्टि के भी अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और रहित मुनि को ही शुभ अशुभ कर्मों के बंध से बचाता है। इसे मिथ्यात्व जनित रागादि नहीं है अत: उतने अंश में उसके भी जयसेन स्वामी ने किञ्च विस्तर: लिखकर स्पष्ट किया है-'जिस निर्जरा है। समय इस जीव को शुद्धात्मा का समीचीन रूप श्रद्धान, ज्ञान और आगे कहा है-अत्र तु ग्रन्थे पञ्चमगुणस्थानादुपरितनपगुण- अनुष्ठान स्वरूप निश्चय रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका ऐसा भेदविज्ञान स्थानवर्तिनां वीतरागसमयग्दृष्टि नां मुख्यवृत्तया ग्रहणं सरा- नहीं होता है, तो उस समय जीव 'मैं इन जीवों को मारता हूँ गसम्यग्दृष्टीनां गौणवृत्येति व्याख्यानं समयग्दृष्टिव्याख्यानंकाले सर्वत्र इत्यादि रूप से हिंसा के अध्यवसान को 'मैं नारक हूँ इत्यादि तात्पर्येण ज्ञातव्यम् कर्मोदय के अध्यवसान को 'यह धर्मास्तिकाय हैं' इत्यादिरूप से इस ग्रन्थ में पञ्चम गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान वाले | ज्ञेय पदार्थ के अध्यवसान को जानता है। तब उस समय वह उस वीतरागसम्यग्दृष्टियों का ही मुख्य रूप से ग्रहण है, सरागसम्यग्दृष्टियों | हिंसा अध्यवसानरूप विकल्प के साथ अपने आपको अभेदरूप का तो गौण रूप से ग्रहण है सम्यग्दृष्टि के व्याख्यान के समय | जानता हुआ वैसे ही श्रद्धान करता है, जानता है और वैसे ही सर्वत्र ऐसा ही तात्पर्य समझना चाहिए। आचरण करता है इसलिए मिथ्यादृष्टि होता है और मिथ्याचारित्री -मार्च 2003 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524271
Book TitleJinabhashita 2003 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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