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________________ विश्वास है। ऐसा क्षुल्लक जी महाराज कहते हैं। सच्चे मन से श्रावक के अंदर साधु के ऊपर विश्वास हो तो साधु के पास अतिशय नहीं हो तो अतिशय प्रकट हो जाता है। एक बार की घटना है सारी प्रजा देखकर आई है कि मुनिराज को कोढ़ हो रहा है। वह राजा से आकर कहती है कि दिगम्बर मुनि कोढ़ी होते हैं, इनकी साधना में इतना भी अतिशय नहीं कि अपना कोढ़ देर कर सकें। इनको भगाओं नहीं तो अपने नगर में कोढ़ फैल जायेगा। एक सम्यग्दृष्टि श्रावक खड़ा हो जाता है और कहता है कि कौन कहता है कि दिगम्बर मुनि कोढ़ी होते हैं। मेरे मुनिराज कोढ़ी नहीं हैं । सब हँस गये। सब कहने लगे कि यह अपनी आँखों से देखकर आया है। लेकिन वो श्रावक भी कहता है कि मेरी भी आँखें हैं मैं भी देखकर आया हूँ कि कोढ़ी नहीं है। सारी जनता कहती है राज दरबार कहता है कि आज तो इसकी हँसी उड़ाओ । राजा सोचता है कि इतनों की सुनूं कि एक की मानूँ । राजा कहता है कि प्रभाल काल में हम चलेंगे और निर्णय करेंगे कि दिगम्बर मुनि कोढ़ी है कि नहीं। अब बड़ी आफल आ गई उस श्रावक को मालूम था कि मेरे मुनि कोढ़ी हैं। लेकिन जब मुनिराज की निंदा होने लगी तो कहता है कि नहीं हो सकते मेरे मुनि कोढ़ी। झूठ, धरम की रक्षा के लिए बोला उसको मालूम है कि मेरे महाराज कोढ़ी हैं लेकिन राजा के सामने कहता है कि मेरे मुनिराज कोढ़ी नहीं हो सकते। कया उसको ये डर नहीं कि जब फैसला होगा तो मुझे फाँसी होगी? लेकिन सम्यग्दृष्टि कहता है कि मैं अपनी मुनि को कोढ़ी सिद्ध नहीं कर सकता, मैं मरूँगा और क्या होगा। वह श्रावक रात में मुनिराज के पास जाता है। कहता है बचाओ महाराज मुझे नहीं आपके इस दिगम्बर धर्म, वीतराग शासन को बचा लीजिए अन्यथा प्रभात काल होते ही मुझे तो फाँसी मिलेगी और इस शासन में कोई वीतराग शासन का अनुयायी नहीं रह पायेगा अधर्म फैल जाएगा। महाराज धर्म को बचाओ ! मुनिराज कहते हैं. भाई मैं क्या कर सकता हूँ तुमने झूठ बोल दिया। तुम तो कह देते कि हमारी महाराज कोढ़ी हैं, तूने सत्य क्यों नहीं कह दिया कि महाराज कोढ़ी हैं। मैं अभी भी नहीं कह सकता हूँ कि मेरे महाराज कोढ़ी हैं आँखों से देख रहा हूँ। महाराज ने कहा भाई मैं क्या कर सकता हूँ तुम झूठ बोले । सबेरे निर्णय हो जायेगा मैं अपनी शक्ति का प्रयोग अपने लिए नहीं कर सकता हूँ जाओ। वह रोने लगा। देखिए सबेरे क्या होता है जिसके बीच रात है फिर कल की क्या बात है। अभी रात और है सो शान्ति से सो जाओ। महाराज सोने की बात कह रहे हो आप ! अब तुम आओ वो चला गया गुरु आज्ञा मान कर के । रात्रि में मुनिराज बैठते हैं और भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि मुझे तो कोढ़ हुआ है नहीं, और जिस शरीर को कोढ़ हुआ है उस शरीर से धर्म का लोप होता है तो आप जानो, और इस शरीर के कोढ़ मिटने से धर्म की रक्षा होती है तो आप जाने। मैं तो ध्यान में बैठता हूँ क्यों कि सुबह क्या होने वाला हैं वह भी आप जानो। ऐसा सोचकर महाराज ध्यान में लीन हो । मार्च 2003 जिनभाषित 8 Jain Education International गये और स्तोत्र की रचना हो गई "एकीभाव स्तोत्र" । एकीभाव स्तोत्र का अर्थ क्या है? 'मैं मात्र अकेला हूँ मेरा कोई नहीं है' भावना भाते गये एकीभाव स्तोत्र चलता गया । कुछ रोग दृर होता चला गया। प्रभात काल होता है। प्रजा एवं राजा सब आते हैं और देखकर आश्चर्य चकित होते हैं कि काया इतनी चमक रही हैं कि मानो सारे सूर्यो का एक साथ उदय हो गया है। राजा कहता है कि इन सारे मंत्रियों को सूली पर चढ़ा दो ऐसे दिगम्बर मुनि को कोढ़ी कहा था जिन की कंचर सी छाया है ! और श्रावक से कहते हैं कि उसको सिंहासन दे दो जिसने कहा था कि गुरु कोढ़ी नहीं होते हैं और सत्य कहा था । बोलिए भाई अब न्याय करिये सत्य क्या था? क्या महाराज कोढ़ी नहीं थे तो श्रावक झूठा हुआ था? फिर इतना साहस है तुममें कि तुम अपने साधर्मी भाई को झूठा सिद्ध कर सकते हो ? कौन हाथ उठाये कि जो यह कहता है कि श्रावक झूठा था। किसी को साहस नहीं होता कि अपने जात भाई को झूठा सिद्ध कर दे। मुनिराज कहते हैं कि श्रावक सच्चा था देखो यह कितना सत्य हैं। यदि सत्य बोलने से धर्म पर विपदा आती है तो सत्य नहीं बोलना चाहिए और असत्य बोलने से विपदा टल जाती है तो उस असत्य को आलम्बन श्रेयस्कर हो जाता है उसके झूठ में अतिशय था । उसने सत्य में अतिशय सुने होंगे लेकिन कभीकभी झूठ में भी अतिशय होते हैं। दुनिया कहती हैं कि सत्य में अतिशय होता है लेकिन तुम्हें यह सुनकर लग रहा होगा कि असत्य में भी अतिशय होता है। अतिशय घट गया और राजा कहता है कि सबको शूली मिलेगी। मुनि कहते हैं राजन शान्ति से सुनो मेरी बात । मंत्रियों और प्रजा ने भी झूठ नहीं बोला था और श्रावक ने झूठ नहीं कहा था। अभी भी एक अँगुली में कोढ़, शेप है ये सत्य है कि मैं कोढ़ी था । श्रावक की शक्ति ने मेरी काया बना दी मैंने नहीं बनाई एक श्रावक की भक्ति इतनी ज्यादा उमड़ी कि उसने भरी सभा में झूठ बोल दिया। उसकी भक्ति ने इतना अतिशय दिखाया कि मेरी कंचन सी काया हो गई। बताओ वह अतिशय उन मुनिराज में था या उस भक्त श्रावक में था? तुम ढूँढते हो अतिशय मुनियों में, शास्त्रों में, भगवान् में अतिशय ढूँढते हो तुम। हमारी जिनवाणी कहती हैं कि अतिशय तो तुम्हारे अंदर हृदय में भरा पड़ा है। जितना तुम्हारा हृदय निश्छल होकर समर्पित होता जायेगा उतना ज्यादा गुरुओं में देवों में शास्त्रों में अतिशय प्रकट होता चला जाएगा। अपने मस्तक की शक्ति जागाओ। भगवान् की गुरुओं की शक्ति मत देखो। अपने मस्तक की शक्ति देखो तुम्हारे पास कितनी शक्ति है और जिस दिन तुम अपने मस्तक की शक्ति प्रकट कर दोगे उस दिन तीन लोग में चमत्कार ही चमत्कार हो जाएगा। वही भगवान् एक के लिए चमत्कारी सिद्ध है और वही भगवान के लिए चमत्कारी सिद्ध नहीं होते। भगवान् पक्षपाती नहीं है। पक्षपाती है तेरी शक्ति, पक्षपाती है तेरा हृदय, तेरा समर्पण पक्षपाती है। जब हम पक्षपाती भक्ति रहेगी तब तक साक्षात अरिहन्त परमेष्ठी भी पक्षपाती हृदय के अंदर अतिशय प्रकट नहीं कर सकते। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524271
Book TitleJinabhashita 2003 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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