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________________ अब हम अपने मूल विषय पर आते हैं। क्षुल्लक जी कहते । कहते हैं कि मेरी आत्मा से पूछो कि मैं कैसे चढ़ा हूँ जिसको इतना हैं हे महाराज! आपको अपनी शक्ति नहीं दिख रही है। महाराज! | साहस करके प्राप्त किया है। क्या पता पुन: न ले पाया तो, क्या वो तुम्हें नहीं दिख सकती है। आँखों से कभी अपनी आँखें नहीं | पता कार्य करने गया उसी समय आयु पूर्ण हो गई तो मैं तो बिना दिखती हैं। हमें दिख रही है कि महाराज तुम्हारी आँखों में कितनी | मुनि पद के मर गया। मैंने अपने पिता के साथ दीक्षा ली थी। चमक है। आपकी शक्ति को भक्त देख सकता है। भक्त को | विष्णु कुमार के पिता पद्ममराज चक्रवर्ती थे। उनके साथ दीक्षा ली भगवान् का चमत्कार दिखता है भगवान् की आँखों को कभी | थी। उनके साथ दीक्षा ली थी। जेष्ठ पुत्र थे विष्णु कुमार । विष्णु भगवान् का चमत्कार नहीं दिखता है। अत: बढ़ाया गया हाथ पार | कुमार को बुलाया, बेटा तू राजगद्दी सम्भाल ले मैं वन की ओर कर गया पर्वत को। विष्णु कुमार कहते हैं कि शक्ति मेरे पास है | जाता हूँ। विष्णु कुमार पूछते हैं पिताजी आप क्यों छोड़ रहे हैं और यह मुझे पता चल गया है लेकिन मैं क्या करूँ मैं मुनि हूँ मुझे राजगद्दी को? पिताजी कहते हैं कि मैं इस लिए छोड़ रहा हूँ कि शक्ति का प्रयोग करने की आज्ञा आगम में नहीं है। मैं शक्ति का | इसमें कोई सार नहीं है। ये सब व्यर्थ है। मायाजाल है। तो विष्णु प्रयोग नहीं कर सकता। फिर भी करना है क्षुल्लक जी कहते हैं। | कुमार कहते हैं तो क्या पिता श्री? जहाँ तुम्हें सार नहीं दिखा तो सात सौ मुनियों को बचाना है । तुम्हें तो तोक्ष जाना है लेकिन पहले | मेरे को क्यों सार, (जानवरों को बाँधने का स्थान) में बाँधकर जा मोक्ष मत जाइये पहले सात सौ को भेजिए फिर जाइये। क्षुल्लक | रहे हो? क्या मुझे ढोर समझ रखा है। तुम्हें सार नहीं दिखा और जी का उपदेश मुनिराज के लिए चालू है। कुछ सोचने के बाद | मुझे बाँध रहे हो लगता है कि आपका पुत्र पशु है आपका पुत्र ढोर महाराज जैसे-जैसे तैयार हुए कि चलो कोई बात नहीं प्रयोग | है। यदि मैं आपका पुत्र हूँ तो ढोर हो ही नहीं सकता। मैं आपको करता हूँ लेकिन तुरंत ही आगम की आवाज आ गई सावधान | पुत्र हूँ तो जो तुम्हारी गति सो हमारी गति, जो तुम्हारी मति सो खबरदार जो मुझसे लिया था वो लौटा दो फिर जाओ जहाँ जाना | हमारी मति, जहाँ तुम्हें सार मिलेगा वहीं पर मेरा सार रहेगा, जो तुम्हें निस्सार है वहीं मुझे निस्सार है। अतः पिता और विष्णु आप लोग भी करते हो जब ग्राहक दूसरी जगह जाने लगे | कुमार छोटे भाई को राज्य देकर चले गये वन के लिए। विष्णु तो कहते हो कि जब जा सकते हो कि पहले हमार उधार दे दो | कुमार कहते हैं कि मेरे पिता का अनुकरण किया था। क्षुल्लक जी फिर दूसरी दुकान पर जाना। इसी प्रकार आगम कहता है कि मेरा | सोचते हैं कि हे भगवान् मामला बिगड़ ना जाये ये फिर से ध्यान मुनि पद वापस करो फिर जाओ तुम। विष्णु कुमार भयभीत हो | में ना बैठ जाये तो बड़ी आफत हो जावेगी। इनकी बुद्धि थोड़ी सी जाते हैं कि कैसा संकट एक ओर सात सौ(700) मुनियों की रक्षा | नीचे लाओ। मुनिराज ने सोचा कि चलो कोई बात नहीं चलता हूँ दूसरी और स्वयं के मुनि पद की बलि। मुनि पद कैसे मिलता है मन मार कर चलता हूँ। ये छोड़ता हूँ मुनिपद। और चलो 700 बन्धुओ! सैकड़ों भव तक जिस आत्मा ने मुनि बनने की भावना | मुनियों की रक्षा करता हूँ। विचार करें यहाँ पर कि एक मुनि ने भायी हो उसे एकाध भव में मुनि बनने का अवसर मिलता हैं। वैयावृत्ति करने के लिए अपना मुनि पद छोड़ दिया, केवल ज्ञान हजारों भव तक वह भगवान् के सामने भक्ति करता है और कहता | छोड़ दिया मुनि की रक्षा के करने के लिए मुनि सेवा करने के है "मेरे ना चाह कुछ और ईश रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश" सैकड़ों | लिए। विष्णु कुमार कहते हैं चला जा, मुक्ति मुझे नहीं चाहिए! भव लग जाते हैं सैकड़ों भवों से कहता है कि मेरी आत्मा में | मोक्ष कहता है मैं तुम्हारी दरवाजे खड़ा हूँ। मुक्ति लक्ष्मी कहती है रत्नत्रय प्रकट हो जाए। ऐसी भावना ना जाने कितने भवों से की कि मैं वरमाला लिए खड़ी हूँ। वो कहता है चली जा अभी आज होगी जब ऐसे पुण्य का संचय हो जाता है तब एक भव में मुनि | मुझे मोक्ष नहीं चाहिए यदि मुझमें हिम्मत होगी तो फिर से बुला बनने का परिणाम बनता है। लूँगा। साधारण खेल नहीं है मुनि बनना। बच्चों का नंगापन नहीं खुदी को कर बुलंद इतना की हर तदवीर से पहले है मुनि बनना। मुनि बनने का अर्थ है अपने भोगों की पूरी शक्ति खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है? लगा देना। तीव्र अतिशय पुण्य का उदय आता है, एक गृहस्थ के अपनी खुदी को इतना बुलंद करे लो कि जब चाहे केवल अंदर परिणाम आता है कि मैं महाव्रत धारण कर लूँ। अन्यथा | ज्ञान प्राप्त कर लूँगा। यह विश्वास रहे। साहस करके चल देता है मुनिव्रत धारण करने का परिणाम अच्छे-अच्छे चक्रवर्तियों को | वहाँ पर जहाँ पर एक दर्दनाक घटना घट रही है। देखते हैं विष्णु नहीं आता है। अच्छे-अच्छे वैभव शालियों के मन में नहीं आता कुमार-मुनिराज जमीन पर लेटे हैं और बलि राजा की समर्थक है। बारह भावना में पढ़ा एक तो मुश्किल से निगोद से निकले | जनता खड़ी-खड़ी हँस रही है। फिर निकलते-निकलते आर्य कुल में संज्ञी पंचेन्द्रिय बने। संज्ञी | इधर यज्ञ चल रहा है। इन्होंने अपने गृहस्थ भेष में अपने पंच इन्द्रीय में दुर्लभ से दुर्लभ मुनिव्रत पाना और ऐसे मुनिव्रत की | छोटे पद्मराज को अन्त:पुर में जाकर फटकारा-दुष्ट ! उठ! जा! आज वलि चढ़ाने की बात आ गई। महाराज कहते हैं कि ये | मैंने और पिता जी ने इस लिए राज्य नहीं दिया था। मालूम नहीं क्षुल्लक जी कह रहे हैं कि दे दो मुनि पद की बलि। विष्णु कुमार | यह किसका कुल है? तेरे पिता मेरे पिता चक्रवर्ती थे और अन्त में -मार्च 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524271
Book TitleJinabhashita 2003 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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