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________________ श्रमण संस्कृति में साम्य भाव से अंतिम विदाई का नाम है 'सल्लेखना' है। मुनि श्री विशुद्ध सागर श्रमण संस्कृति में त्याग और तपस्या की अद्भुत महिमा ने । संसारी का सेहरा बाँध लेते हैं। अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया है। चर्या में अहिंसा, फिर संसारनाशक साधक कौन होता है तो मूलाचार में उल्लेख दृष्टि में अनेकान्त और वाणी में स्याद्वाद इस संस्कृति क मूल मंत्र मिलता है - है। जैन दर्शन में संयम को जीवन का श्रृंगार कहा गया है। आत्म जिण बयणे अणुरत्ता गुरुवयणं जे करंति भावेण। भावना की नीव संयम है। प्रभुत्व शांति को उजागर करने का कोई असबल अएंकिलिट्णा ते होंति परित्त संसारा॥ माध्यम है तो वह है संयम मार्ग। इसके बिना मनुष्य (नर) पर्याय भावार्थ यह कि जो जिनेन्द्र देव के वचनों के अनुरागी है, निर्गन्ध पुष्प के तुल्य है। सुगन्ध रहित पुष्प की जैसे कोई कीमत | भाव से गुरु की आज्ञा का पालन करता है वही संसार का अंत कर नहीं होती, उसी प्रकार संयम रहित जीवन व्यर्थ है। पाता है। जैनागम में मरण के पाँच भेद किए गए है: बालबालमरण, संयम नीव है तो संल्लेखना उसका कलश है। जिस प्रकार | बालमरण, बालपंडितमरण, पण्डितमरण, पंडितपंडितमरण। कलश रहित मंदिरशिखर, शोभा को प्राप्त नहीं होता वैसे ही | मिथ्यात्व की दशा में जो जीव मरण को प्राप्त होता है वह बालबाल संल्लेखनाविहीन संयम भी शोभाहीन हो जाता है। साधक की साधना | मरण है। सम्यक् दृष्टि जीव के अव्रत दशा के मरण को बालमरण का कोई प्रतिफल है तो वह है समाधि। साधक की पूर्ण साधना | कहा गया है। देश संयमी (अणुव्रती) का मरण बाल पंडित मरण, निर्मल और निर्दोष होने पर ही निर्मल समाधि हो पाती है। सच्चे | महाव्रती मुनिराजों की विधिपूर्वक सल्लेखना से जो मरण होता है, साधक को मृत्यु का बोध हो जाता है, क्योंकि जिस जीव का जैसा | वह पंडितमरण और केवली भगवान् का जो निर्वाण (मोक्ष) होता गति बंध होता है, अंत समय में उसकी मति वैसी हो जाया करती | है वह पंडित-पंडित मरण कहलाता है। इस जीव ने अज्ञान दशा में बाल-बाल मरण तो अनंतबार साधक के लिए समाधि और सल्लेखना ऐसी उत्कृष्ट | किया, परन्तु पंडित मरण नहीं किया। एक बार भी पंडित मरण हो सम्पत्ति है जिसकी कामना हरेक व्यक्ति करता है, पर जिस जीव | जाता तो 7 अथवा 8 भव ही धारण करता और न्यूनतम 2-3 भव ने अशुभ कर्म का बंध कर लिया हो, उसे समाधि रूपी संपदा | के बाद मोक्ष को प्राप्त कर लेता। मिल नहीं पाती। सम्यग्दृष्टि भव्य जीव की ही समाधि होती है। सल्लेखना समाधि अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव की त्रिकाल में समाधि होती ही नहीं है। मरणकाल नजदीक आने पर प्रीतिपूर्वक साधक को सल्लेखना जिन साधकों को निर्मल समाधि चाहिए उन्हें सर्व प्रथम असमाधि | धारण करने का विधान है। सवार्थसिद्धि में सूत्र दिया गया है किके कारणों से बचकर अपने से ज्ञानदर्शनचारित्र में जो श्रेष्ठ हैं सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना उनकी अविनय से बचें। अर्थात् अच्छे प्रकार से काय और कषाय को कृश करना यदि कोई साधक स्वयं से दीक्षा में एक दिन, एक रात | सल्लेखना है। यह सल्लेखना साधक प्रीतिपूर्वक धारण करता है, और एक मुहूर्त भी बड़ा है तो उसे ज्येष्ठता की अपेक्षा मूलाचार | क्योंकि प्रीति के रहने पर बलपूर्वक सल्लेखना नहीं कराई जाती, ग्रन्थ में गुरु संज्ञा दी गई है। गुरु का अविनयी, नियम से असमाधि | किन्तु प्रीति के रहने पर साधक स्वयं ही सल्लेखना करता है। इसे को प्राप्त करता है । जैनागमविरुद्ध क्रियाओं को पकड़ने से जिनाज्ञा | धारण करने के लिए समाज अथवा धर्म का दवाब नहीं होता को भंग करने वाला समाधि सहित मरण नहीं कर पाता है। बल्कि साधक स्वेच्छा से मृत्यु काल समीप समझकर धर्मध्यान से आचार्य श्री वट्टकेर महाराज ने मूलाचार जी ग्रन्थ में युक्त होकर प्राणों का विसर्जन करता है। सल्लेखना को समाधिमरण असमाधि से युक्त करण करने वाले जीव के लक्षण को बताया है भी कहा गया है। समाधि से तात्पर्य है समतारूप बुद्धि या समता कि: परिणाम। यह परम सत्य है जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु जे पुण गुरु पडिणीया वहु मोहा ससबलाकुसीलाय।। नियम से होगी, चाहे साम्यभाव से अंतिम श्वासों को छोडे अथवा अस महिणा मरते ते होंति अणंत संसारा॥ चिल्ला-चिल्लाकर प्राणों का विसर्जन करे। अर्थात् जो गुरु के प्रतिकूल हैं मोह की बहुलता से युक्त सल्लेखना से अनभिज्ञ पुरुष भी एक दिन मृत्यु को प्राप्त हैं, सबल-अतिचार सहित चारित्र पालते हैं और कुत्सित आचरण | होंगे। उन्हें भी यही चिन्तन और विचार करना चाहिए कि उनका वाले हैं वे नियम से असमाधि से मरण करते हैं। इस प्रकार अनंत | अंतिम समय शान्तभावपूर्वक व्यतीत हो। शांत नि:स्पृह भाव से -अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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