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करता रहा है तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।। ट्रस्ट अनुचित लाभ न उठा सके। इनकी नीति और नीयत के बारे पहले किसी प्राचीन मन्दिर में स्वाध्याय के लिए स्थान माँगने, | में पूर्णत: आश्वस्ति प्राप्त कर लेने के बाद ही इन्हें आगे किसी फिर धीरे-धीरे उस पर कब्जा जमा लेने और प्रतिरोध होने पर | मन्दिर में सूचीकरण की अनुमति देनी चाहिए। जब भी किसी वास्तविक अधिकारियों के विरुद्ध अदालत में केस दायर करने मन्दिर में सूचीकरण का कार्य ये लोग करें, तब उस कार्य की की घटनाएँ हम सबके सामने हैं। किसी भी दिगम्बर जैन साधु में निगरानी करने के लिए मन्दिर के किसी अधिकारी अथवा अधिकृत इनकी श्रद्धा नहीं है। इनके पत्रों में कभी उनके प्रवचन और फोटो कार्यकर्ता का वहाँ उपस्थित रहना भी बहुत आवश्यक है, अन्यथा नहीं छपते। इनके कुछ अच्छे कार्यों के पीछे भी सदाशयता का | 'सावधानी हटी और दुर्घटना घटी' की कहावत चरितार्थ होती अभाव समाज को संकट में डालता रहा है।
रहेगी। महासभा और महासमिति के पदाधिकारीगण इस सन्दर्भ सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट यदि निष्काम भाव से यह सेवामें गम्भीरता से विचार करें। जिन मन्दिरों के ग्रन्थों पर इस ट्रस्ट के कार्य करे तो हर कोई इसका स्वागत करेगा, किन्तु अभी तो नाम वाले टेग लग चुके हैं, उन्हें हटाकर या उनके ऊपर सम्बन्धित | समाज की स्थिति दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर मन्दिर के नाम के टेग चस्पा कर देने चाहिए, ताकि बाद में यह | पीता है' जैसी बनी हुई है।
पुराण-कथा
बहु दुःखकारी व्यसन जुए का
प्रस्तुति- डॉ. कस्तूरचन्द्र 'सुमन' एक समय की बात है- भारतवर्ष में एक कुणाल नाम | है कि यह देह भले ही मर जावे किन्तु आशा-तृष्णा का अन्त का देश था। इस देश की एक प्रसिद्ध लोकप्रिय नगरी थी | नहीं होता। राजा की धन जीतने की लालसा बढ़ी। उसने हरसंभव श्रावस्ती। इस नगरी का सुकेतु राजा था। यह राजा व्यसनी हो यत्न किया आगे और विजय पाने का, किन्तु समय ने करवट गया था। जुए का व्यसन इतना अधिक था कि वह राज-काज बदली। अब उसकी विजय पराजय में बदल गई। फिर भी राजा को छोड़ उसी में मस्त रहने लगा था।
सचेत नहीं हुआ। मृगतृष्णा में पड़ गया। भूल गया यह कि जो जुआ खेलता है उसे कालान्तर में मांस और मदिरा राजकोष खाली हो रहा है। खेलता रहा और तब तक खेलता रहा भी अच्छी लगने लगती है। वेश्यावृत्ति से भी उसे परहेज नहीं जब तक कि वह सब कुछ नहीं हार गया। रह जाता। पराजय होने से धनाभाव के समय चोरी करने में भी हार जाने पर जुआरी या तो उधार माँगकर जुआ खेलता उसे लाज नहीं आती। विजय होने पर भोगोपभोग अच्छे लगने था या धन चुराकर। जब तक उधार मिलता है, चोरी नहीं करता। लगते हैं। शिकार में आनन्द मानने लगता है। अपने पद की राज्य हार जाने से सुकेतु का हाल बेहाल हो गया, फिर भी जुआ गरिमा को भूल जाता है।
खेलना बंद नहीं किया। सब कुछ हार जाने से उसने चोरी तो जुआ खेलनेवालों की ऐसी हालत देखकर राजा सुकेतु | नहीं की किन्तु धन की याचना करते हुए उसे तनिक भी लाज के मंत्री और कुटुम्बियों को चिन्ता हुई। मंत्री कोषागार खाली नहीं आई। इसने उधार लेकर भी जुआ खेला, किन्तु सफलता होने से और कुटुम्बी अपयश से भयभीत हुए। मिलकर सभी ने नहीं मिली। हारता ही हारता रहा। देश, राजकोष, सेना ही नहीं समझाया परन्तु यह तो चिकना घड़ा था। जैसे चिकने घड़े पर यह अपनी रानी को भी जुए में हार गया। पानी की बूंद नहीं ठहरती, ऐसे ही किसी भी उपदेश का इस पर सब कुछ हार जाने के पश्चात् यह दर-दर की ठोकरें कोई असर नहीं हुआ। उसने किसी का कहना नहीं माना। खाने लगा। मारा-मारा फिरने लगा। कहते हैं-अक्ल आती है अपनी ही धुन में मस्त रहा।
बसर को ठोकरें खाने के बाद। यही दशा इस राजा की हुई। इसे राजा जुआ खेलता ही रहा। यह व्यसन इसे इतना अधिक अनेक कष्ट भोगने के बाद कुछ समझ आई। अपने लोकापवाद रुचिकर हो गया कि इसके आगे राज्य-कार्य पर ध्यान की तो और अपयश को देखकर इसे विरक्ति हुई। इसने दीक्षा धारण दूर स्नान भी इसे अच्छा नहीं लगने लगा। समय पर भोजन न करके कठोर तप किया और स्वयं को सम्हाला। अन्त में करने की आदत बन गई। रात-रात भर जागरण करने लगा। संन्यासपूर्वक मरकर यह लान्तव स्वर्ग में देव हुआ। फल यह निकला कि वह बीमार रहने लगा। इतना सब कछ
जुआ कोयले जैसा है। कितना ही घिसो कालिमा ही जैसे होने पर भी इसने जुआ खेलना नहीं छोड़ा। जुए में ही मग्न रहने | कोयले से निकलती है, इसी प्रकार कितना ही खेलो जुआ, किन्तु | लगा।
उससे निकलेगा दुःख ही दुःख। किसी ने ठीक ही कहा हैएक दिन जुए में इसकी लगातार विजय हुई। इस विजय
क्षण में राजा क्षण में रंक। ये यह बहुत खुश था। बहुत धन इसके हाथ भी लग जाता था
देखो जुआबाज के रंग॥ किन्तु तृष्णा जीव की कब शान्त होती है। नीतिज्ञों ने कहा भी
(महापुराण, ५९.७२-८१)
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अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित
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