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________________ मृत्यु का नाम ही सल्लेखना-समाधिमरण है, बलात् आत्मघात करना सल्लेखना नहीं है। साधक की आयु जब पूर्णत: की ओर होती है तब वह योग्य आचार्य महाराज (गुरु) की चरणनिश्रा में पहुँचकर अनुनय-विनय करता है कि भगवन अब यह देह साधना में सहायक नहीं हो रही और न ही संयम का निर्मल पालन हो पा रहा है अतः आत्मधर्म की रक्षा के लिए सल्लेखना व्रत प्रदान करें। यह सत्य है कि किसी व्यक्ति के भवन में अग्नि लग जाने पर पहले अग्नि बुझाता है और भवन की रक्षा का पूर्ण यत्न करता है। ऐसी स्थिति में वह रत्न - स्वर्ण आदि द्रव्यों को लेकर भवन के बाहर आ जाता है। ठीक उसी प्रकार जैन योगी सर्वप्रथम धर्म साधना के लिए शरीर की पूर्ण रक्षा करता है। जब वह समझ लेता है कि अब यह शरीर बचने वाला नहीं है तब वह श्रेष्ठ रत्न, रत्नत्रय धर्म की रक्षा के खातिर समाधि धारण करता है। अर्थात् कषायों से तथा शरीर से निःस्पृह वृत्ति को स्वीकार कर चिंतन करता है धीरेण वि मरिदव्यं णिद्धीरेण वि अवस्समरिव्वं । जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि धीरतणेण मरिदव्वं ॥ इस गाथा का यह अर्थ है कि धीर को भी मरना है और धैर्य रहित जीव को भी मरना पड़ता है। दोनों स्थिति में मृत्यु है तो धीरता सहित मृत्यु का वरण करना श्रेष्ठ हैं । सीलेण वि मरि दव्यं णिस्सीलेणवि अवस्स मरिद जड़ दोहिं वि मरिदव्वं वरं हु सौलत्तणेण मरियव्वं ॥ १०१ ॥ मूलाचार की इस गाथा का अर्थ है कि शीलयुक्त और शील रहित दोनों को मरना ही है, तो क्यों न शील सहित मरण को स्वीकार किया जाए। साधक जब आचार्य महाराज से प्रार्थना करता है, तब ज्ञानी आचार्य, योग्य वैद्य अथवा डाक्टर से सलाहपूर्वक रिष्टज्ञान से अंदाज लगा लेते हैं कि साधक की आयु क्षीण होने वाली है, इसका अल्प समय ही अवशेष है तब ही साधक को सल्लेखना की स्वीकृति प्रदान की जाती है। मृत्यु से कुछ समय पूर्व शरीर की स्थिति बनाए रखने वाले परमाणुओं में विपर्यास आ जाता है जिसके कारण इन्द्रिय शक्ति क्षीण हो जाती है और शरीर के संघटित परमाणु विघटित होने की ओर अग्रसर होने लगते हैं, तब धैर्य और स्मृति में न्यूनता आने लगती है। यही प्रक्रिया शारीरिक अरिष्टों की सूचक है। जिस व्यक्ति को अपने पैर दिखाई न दें तो उसे अपनी आयु तीन वर्ष की जानना चाहिए। जंघा न दिखे तो 2 वर्ष, घुटना दिखाई न दे तो एक वर्ष और वक्षस्थल दृश्यमान न होने पर दस माह आयु के शेष मानना चाहिए। इन निमित्तों से आचार्य महाराज जान लेते हैं कि आयु पूर्णता की ओर है जब आयु की स्थिति पूर्णता की ओर होती है तभी सल्लेखना व्रत धारण किया जाता है। सल्लेखना समाधिमरण है । इसे अकालमरण की संज्ञा देने वाले अज्ञ हैं । सल्लेखना कब धारण करना चाहिए इस संबंध में जैन दर्शन के महान तार्किक आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 8 Jain Education International उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ गाथा का अर्थ यह है कि प्रतिकार रहित उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा और रोग के उपस्थित होने पर धर्म के लिए शरीर को छोड़ने को गणधरादि देव आर्य पुरुष सल्लेखना कहते हैं। सल्लेखना आत्मघात नहीं है महान् आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी पुरुषार्थसिद्धयुपाय जी में लिखते हैं 1 यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः व्ययरोपयति प्राणान् तस्य स्यात् सत्यमात्मवधः ॥ जो पुरुष कषाय से रंजित होता हुआ कुम्भक जल, अग्नि, विष और शास्त्रों के द्वारा प्राणों को नष्ट करता है यही वास्तव में आत्मघात है । ठीक इसके विपरीत सल्लेखना करने वाला न तो मरण चाहता है, न अग्नि में सती प्रथा के समान कूदता है, न ही पर्वत से गिरकर प्राण देता है, न विष खाकर मरता है, न ही जल में कूदकर प्राणों का त्याग करता है। वह तो मरणकाल जानकर शांत भाव से धर्मध्यान से युक्त होकर देह का विसर्जन करता है । जिन्हें यह शंका है कि सल्लेखना आत्मघात करना क्यों नहीं है उन्हें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि यह सल्लेखना आत्म घात करना नहीं है। क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद (उदासीनता) का अभाव रहता है। प्रमत्त योग से प्राणों का वध करना हिंसा है। जहाँ हिंसा हो वह कृत्य आत्मघात करना हो सकता है, परन्तु सल्लेखना में न हिंसा है और न ही आत्मघात । महान आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने स्पष्ट किया है कि मरणेऽवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे । रागादिमंतरेण व्याप्रियामाणस्य नात्मघातोस्ति ॥ इस गाथा का यह अर्थ है कि मृत्यु के उत्पन्न होने पर नियम से कषाय सल्लेखना के सूक्ष्म करने मात्र में राग-द्वेष के बिना व्यापार करने वाले सल्लेखना धारण करने वाले पुरुष का आत्मघात करना नहीं है। यहाँ पर शंका की जा सकती है कि जो पुरुष सल्लेखना धारण करता है, वह आत्मघाती क्यों नहीं कहा जाता ? क्योंकि वह मरण चाहता है और प्राणों को शरीर से हटाने के लिए उद्यम करता है। इसी शंका का समाधान उपर्युक्त श्लोक में किया गया है कि सल्लेखना को धारण करना आत्मघात करना किसी भी दृष्टि से नहीं है। कारण यह है कि मरण समय उपस्थित हो जाने पर साधक कषायों को कृश कर अपने परिणामों को विशुद्ध करता है । दूसरी बात यह है कि इसमें वह आत्मघात का कोई प्रयोग नहीं करता, जब उसे यह बोध हो जाता है कि अब नियम से मृत्यु के सन्निकट है तो वह अपने संबंधियों से क्षमा माँगता है और परिग्रहों और कुटुम्बियों से ममत्व को छोड़कर शुद्धात्म स्वरूप के चितवन में मग्न हो जाता है। क्या आत्मघात करने वाला ऐसे निर्मल विशुद्ध परिणाम बना सकेगा? वह तो विशेष राग-द्वेष भावों से आत्मघात करने की कुचेष्टा करता है, मरणजन्य संक्लेश भावों से मरता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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