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________________ जिज्ञासा समाधान प्रश्नकर्ता श्री देवेन्द्र कुमार जैन, झाँसी जिज्ञासा- क्या तीर्थंकर एवं अन्य सभी मुनि पिच्छी व कमण्डलु दोनों रखते हैं या नहीं? समाधान - तीर्थंकर मुनि बनने के उपरांत पिच्छी-कमण्डलु नहीं रखते । अन्य मुनियों में भी जिनके, शलाका पुरुष होने के कारण अथवा नीहार रहित होने के कारण, कमण्डलु की आवश्यकता नहीं होती है वे सिर्फ पिच्छी रखते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र के धारी मुनिराज उनके द्वारा जीव हिंसा न होने के कारण, पिच्छी नहीं रखते हैं। जिनके प्रमाण इस प्रकार हैं 1. महापुराण सर्ग 17-18 में भगवान आदिनाथ की दीक्षा का सम्पूर्ण वर्णन है परन्तु पिच्छी - कमण्डलु का वर्णन नहीं पाया जाता। इसी तरह उत्तरपुराण में समस्त तीर्थंकरों के चारित्र का वर्णन है परन्तु दीक्षा कल्याणक के अवसर पर पिच्छी-कमण्डलु देने का कोई प्रकरण कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता । 2. भावापहुड गाथा - 79 की श्रुतसागरीटीका में इस प्रकार लिखा है- "पिच्छी कमण्डलुरहितं लिङ्गं कश्मलमित्युच्यते तीर्थंकर परमदेवात्तप्तद्धेर्वि अवधिज्ञानाद् ऋते चेत्यर्थः । अर्थ- पिच्छी- कमण्डलु रहित साधुवेश ठीक नहीं, किन्तु तीर्थकर परमदेव, तप्तऋद्धि के धारक मुनिराज और अवधिज्ञान से युक्त मुनियों को इनकी आवश्यकता नहीं रहती । 3. भाव संग्रह (वामदेवकृत) में इस प्रकार कहा है" अवधेः प्राक् प्रगृहन्ति मृदुपिच्छं यथागतम् ॥276 | अर्थ- अवधिज्ञान के बाद पिच्छिका आवश्यक नहीं। 4. नियमसार गाथा 64 की टीका में इस प्रकार लिखा है"उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निष्पृहः, अतएव बाह्योपकरणनिर्मुक्ताः " अर्थउपेक्षासंयमियों के पुस्तक, उपकरण आदि बाह्य उपकरण नहीं होते । 5. महावीरचरित्र सर्ग 17 श्लोक 127 में लिखा हैतीर्थंकरों के परिहार विशुद्धि संयम होता है (अत: उनके पिच्छीकमण्डलु नहीं होते) " 6. तत्त्वार्थसून (टीका पं. फूलचंद जी सिद्धांताचार्य) अध्याय - 9, सूत्र - 47 में लिखा है- निर्ग्रन्थों का द्रव्य लिंग एक सा नहीं होता। किसी के पिच्छी-कमण्डलु होते हैं, किसी के नहीं होते । 7. जैन साहित्य और इतिहास (पं. नाथूराम जी प्रेमीकृत) द्वितीय संस्करण पृष्ठ- 494 पर लिखा है- “तीर्थंकरानुकारमिच्छतां मठे निवसनं पिच्छीकमण्डलु धारणं..... सर्वमविधेयं स्यादिति । अर्थात् तीर्थंकर रूप के अभिलाषियों का मठ में रहना, पिच्छी Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा कमण्डलु धारणा उचित नहीं है।" 8. जयसेन प्रतिष्ठापाठ पृष्ठ 271 पर इस प्रकार लिखा है'अत्र कमण्डलुपिच्छिकादानं तीर्थंकरस्य शौचक्रियाजीव धाताभावाच्च न कर्तुम् प्रभवति ।" अर्थ- शौचक्रिया और जीवहिंसा के अभाव के कारण तीर्थंकरों के कमण्डलु पिच्छी नहीं होते । 9. समयप्रवाह (प्रतिष्ठाचार्य दुर्गाप्रसाद जी) 1, पृष्ठ 16 में लिखा है- "भगवान की दीक्षा के समय पिच्छी- कमण्डलु नहीं होते । - 10. विचार सार प्रकरण पृष्ठ 47 पर लिखा है-"न वि लेइ जिणा पिच्छी, न वि कुंडी वक्कलं च कडमारं ।" तीर्थंकर पिच्छी, कमण्डलु, चटाई आदि नहीं रखते। (उपर्युक्त सभी प्रमाण पं. रतनलाल जी कटारिया, केकड़ी के संदर्भ से लिये गए हैं) । जिज्ञासा पुण्य कर्मों का बंध किस गुणस्थान तक होता है और पुण्य कर्म का उदय किस गुणस्थान तक रहता है? समाधान- कर्म बंध प्रक्रिया के अनुसार 10 वें गुणस्थान तक छह कर्मों का बंध होता है और तदुपरांत 11-12-13 वें गुणस्थान में केवल साता वेदनीय या ईर्यापथ आस्रव होता है। इस आस्रवय का बंध भी एक स्थिति वाला होता है, अतः यह स्पष्ट है कि साता वेदनीय का बंध 13 वें गुणस्थान तक माना गया है । तदनुसार पुण्य कर्मों का बंध प्रथम गुणस्थान से 13वें गुणस्थान तक मानना चाहिए । उदय के संबंध में, 14वें गुणस्थान के उपान्त समय में मनुष्य आयु आदि 12/13 प्रकृतियों का उदय पाया जाता है जिनका विच्छेद अयोग केवली गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है। इससे ज्ञात होता है कि पुण्य कर्म की प्रकृतियों का उदय प्रथम गुणस्थान से 14 वें गुणस्थान के उपान्त समय तक पाया जाता है। जिज्ञासा गौतम स्वामी, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी कहाँ से मोक्ष गये? समाधान- (अ) भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतमस्वामी के निर्वाण स्थान के बारे में दो मत प्रचलित हैं। उत्तरपुराण पृष्ठ 563 के अनुसार गौतमस्वामी को विपुलाचल (राजगिरी) से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है, जबकि वर्तमान प्रचलन के अनुसार बिहार में गुणावा नामक स्थान को इनका मोक्ष स्थान माना जाता है। (आ) श्री सुधर्माचार्य का निर्वाण भी विपुलाचल पर्वत से हुआ था । (इ) अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के बारे में भी दो मत हैं । किन्हीं शास्त्रों के अनुसार तो इनका निर्वाण विपुलाचल 'अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 27 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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