SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्वत से ही हुआ है। जबकि वर्तमान में चौरासी (मथुरा) को इनका निर्वाण स्थान माना जाता है। ऐसा भी कुछ शास्त्रकारों ने वर्णन किया है। जिज्ञासा- क्या तीर्थंकर दीक्षा लेने के बाद केवल एक बार ही आहार लेते हैं या अधिक बार ? समाधान- भट्टारक सकलकीर्ति विरचित वीर वर्धमान चरित्र अधिकार - 13, श्लोक नं. 7-8 के अनुसार- "कुल नामक धर्मबुद्धि राजा ने भगवान वर्धमान का विधिवत नवधाभक्तिपूर्वक पड़गाहन करके आहार दिया था।" ऐसा ही प्रकरण अर्थात् भगवान वर्धमान को कूल राजा ने प्रथम आहार दिया था, उत्तरपुराण पृष्ठ 464 पर श्लोक नं. 318 और 319 से स्पष्ट है। भगवान वर्धमान को सती चन्दना द्वारा दिए गए आहार के बारे में किन्हीं विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि यह प्रकरण दिगम्बर आम्नाय का नहीं है। जबकि दिगम्बर आम्नाय के शास्त्रों में सती चन्दना द्वारा आहार दिये जाने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। उत्तरापुरण पृष्ठ 466 पर लिखा है "उस बुद्धिमती चन्दना ने विधिपूर्वक पड़गाहकर भगवान को आहार दिया, इसलिये उसके यहाँ पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई" । वीर वर्धमान चारित्र में भी पृष्ठ 130 पर अधिकार 13 श्लोक 96 में इस प्रकार कहा है " तब उस सती चन्दना ने परम भक्ति के साथ नव प्रकार के पुण्यों से युक्त होकर अर्थात् नवधाभक्ति पूर्वक विधि से हर्षित होते हुए श्री महावीर प्रभु को वह उत्तम अन्न दान दिया।" वीरवर्धमानचरित्र पृष्ठ-136 पर इस प्रकार और भी लिखा है- " वे जिनदेव बेला-तेला को आदि लेकर 6 माह तक के उपवासों को करने लगे। कभी पारणा के दिन अवमौदर्य तप करते, कभी अलाभ परिषह को जीतने के लिए चतुष्पद आदि की प्रतिज्ञा करने के लिए अद्भुत वृत्तिपरिसंख्यान तप को करते, कभी निर्विकृति आदि की प्रतिज्ञा करके रस परित्याग तप को करते ।" इन प्रमाणों से सिद्ध है कि वर्धमान कभी दो दिन बाद, कभी 3 दिन बाद और कभी 6 माह बाद छद्मस्थ काल में आहार के लिए उठते थे और उनके 12 वर्ष के छद्यस्थ काल में कई आहार हुए। भगवान आदिनाथ के संबंध में आदिपुराण पर्व 20, श्लोक नं. 175 में इस प्रकार कहा है- " अतिशय उग्र तपश्चरण को धारण करने वाले वे वृषभदेव मुनिराज अनशन नाम का अत्यंत कठिन तप करते थे और एक कण आदि का नियम लेकर अवमौदर्य नामक तपश्चरण करते थे ||175 || वे भगवान कभी अत्यंत कठिन वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप तपते थे, जिसके कि बीथी चर्या आदि अनेक भेद हैं ।।176 | इसके सिवाय वे आदिपुरुष आलस्य रहित हो दूध, घी आदि रसों का परित्याग का नित्य ही (सदा) रसपरित्याग नाम का घोर तपश्चरण करते थे।" इस संदर्भ में भी यही स्पष्ट होता है कि भगवान आदिनाथ ने प्रथम आहार तो राजा श्रेयांस के यहाँ लिया ही था, उसके बाद भी वे निरंतर उपर्युक्त 28 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International 1 । विधि से आहार लेने उठते थे। इतना ज्ञातव्य है कि तीर्थंकर प्रभु वर्धमान चारित्री होते हैं जो तीर्थंकर प्रथम बार छह माह का उपवास करके चर्या को निकले हों, वे आगे भी छह माह से पूर्व कभी चर्या को नहीं निकलते इसी आधार से पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने एक बारअपने प्रवचन में कहा था कि भगवान आदिनाथ के लगभग 1998 आहार, छद्मस्थ काल के पूरे 1000 वर्ष में हुए होंगे। उपरोक्त शास्त्रीय प्रमाणों से यह स्पष्ट हे कि तीर्थंकर भगवान एक से अधिक बार आहार के लिए चर्या करते हैं । जिज्ञासा - अशुद्धोपयोग किसे कहते हैं ? समाधान- प्रवचनसार गाथा 155 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने ऐसा कहा है- " स तु ज्ञानं दर्शनं च साकारनिराकारत्वेनो भयरूपत्वाच्चैतन्यस्य, अथायमुपयोगो द्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः। स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽ शुभश्च ||155 || अर्थ- वह (उपयोग) ज्ञान तथा दर्शन है। क्योंकि चैतन्य के साकार (विशेष) और निराकार (सामान्य) उभयरुपपना है। अब यह उपयोग शुद्ध अशुद्धपने से दो प्रकार का विशेष है। उसमें से शुद्ध निरुपराग (निर्विकार) है और अशुद्ध सोपराग (सविकार) है वह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धि और संक्लेश रूप से दो प्रकार का है। अर्थात् विकार, मन्द कषाय रूप और तीव्र कषाय रूप से दो प्रकार का है |55 ॥ भावार्थ- राग-द्वेष रहित निर्विकार उपयोग शुद्धोपयोग है, जो सप्तम गुणस्थान से 12वें गुणस्थान तक होता है। अशुद्धोपयोग दो प्रकार का है- 1. शुभोपयोग, 2. अशुभोपयोग। धर्मानुराग रूप उपयोग को शुभोपयोग कहा गया है जो 4-5-6 वें गुणस्थान 我 होता है और विषयानुरागरूप और द्वेषमोहरूप उपयोग को अशुभोपयोग कहते हैं, जो प्रथम से तृतीय गुणस्थान तक होता है, द्रव्य संग्रह गाथा 34 की टीका देखें । शुभोपयोग और अशुभोपयोग का स्वरूप आगम में इस प्रकार कहा है- प्रवचनसार गाथा 69 देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु । उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पणो अप्पा | 169 || अर्थ- देव, यति और गुरु की पूजा में तथा दान में तथा सुशीलों में उपवासादिकों में लीन आत्मा शुभोपयोगमयी है । प्रवचनसार गाथा 158 में विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो । उग्गो उम्मम्मपरो उवओगो जस्स सो असुहो ।1158 ॥ अर्थ- जिसका उपयोग विषय कषाय में मग्न है, कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, कषायों की तीव्रता में अथवा पापों में उद्यत है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है वह अशुभोपयोग हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy